कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी/यूँ कोई बेवफा
नहीं होता कि तर्ज पर मान लीजिये कि मैं भी किसी कारण से बहुत दिनो से कोई पोस्ट
नहीं डाल पाया। इस बार जनवरी 2010 की पाखी में छपा अपना ही एक नवगीत डाल रहा
हूँ।
अब ये नवगीत आपके हवाले .................
- प्रदीप कांत
किसी फ्रेम में जड़े हुऐ
हैं लोग
कब से यूँ ही खड़े हुऐ
हैं लोग
कहीं पेड़ पर टंगा हुआ बेताल
कथा बाँचता करता कई
सवाल
सुनते गुनते बड़े हुऐ
हैं लोग
कड़ी धूप में ठूँठ हुऐ
पीपल
आऐ भी तो टुकड़ों में बादल
रेत में अब तो गड़े हुए
हैं लोग
- प्रदीप कांत
1 टिप्पणी:
अच्छी रचना है थोडी और बडी हो सकती है
- R K Sharma
एक टिप्पणी भेजें