बोरी भर मेहनत पीसूँ
निकले इक मुट्ठी भर सार
आसान
लफ्ज़ों में मज़दूर की मज़दूरी पर ये शेर लिख देने वाले हस्तीमल हस्ती का नाम शायरी
के लिये किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हस्तीजी ग़ज़लों को जगजीत सिंह जी गाया है।
पिछले दिनो मुम्बई में हस्तीजी से मुलाकात का सौभाग्य मिला तो उनके मिज़ाज़ की सादादिली
देखने को मिली।
तत्सम
पर इस बार हस्तीजी की कुछ ग़ज़लें...
प्रदीप कान्त
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1
काम करेगी उसकी
धार
बाकी लोहा है बेकार
कैसे बच सकता था मैं
पीछे ठग थे आगे यार
बोरी भर मेहनत पीसूँ
निकले इक मुट्ठी भर सार
भूखे को पकवान लगें
चटनी, रोटी, प्याज, अचार
जीवन है इक ऐसी डोर
गाठें जिसमें कई हजार
सारे तुगलक चुन-चुन कर
हमने बना ली है सरकार
शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार
बाकी लोहा है बेकार
कैसे बच सकता था मैं
पीछे ठग थे आगे यार
बोरी भर मेहनत पीसूँ
निकले इक मुट्ठी भर सार
भूखे को पकवान लगें
चटनी, रोटी, प्याज, अचार
जीवन है इक ऐसी डोर
गाठें जिसमें कई हजार
सारे तुगलक चुन-चुन कर
हमने बना ली है सरकार
शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार
2
सच के हक़ में
खड़ा हुआ जाए ।
जुर्म भी है तो ये किया जाए ।
हर मुसाफ़िर में ये शऊर कहाँ,
कब रुका जाए कब चला जाए ।
हर क़दम पर है गुमराही,
किस तरफ़ मेरा काफ़िला जाए ।
जुर्म भी है तो ये किया जाए ।
हर मुसाफ़िर में ये शऊर कहाँ,
कब रुका जाए कब चला जाए ।
हर क़दम पर है गुमराही,
किस तरफ़ मेरा काफ़िला जाए ।
जन्म: 11 मार्च, 1946, आमेट, जिला- राजसमन्द, राजस्थान
दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
क्या कहें किससे कहें [महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरष्कृत],
कुछ और तरह से भी [अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरष्कार से सम्मानित]
सम्पर्क: ज्वेलरी एम्पोरियम,
नेहरू रोड़, सांताक्रूज़ (पूर्व)
मुम्बई - 400 095
मोबाइल: 098205 90040
|
बात करने से बात
बनती है,
कुछ कहा जाए कुछ सुना जाए ।
कुछ कहा जाए कुछ सुना जाए ।
राह मिल जाए हर
मुसाफ़िर को,
मेरी गुमराही काम आ जाए ।
इसकी तह में हैं कितनी आवाजें
ख़ामशी को कभी सुना जाए ।
मेरी गुमराही काम आ जाए ।
इसकी तह में हैं कितनी आवाजें
ख़ामशी को कभी सुना जाए ।
3
मुहब्बत का ही इक मोहरा
नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था
सज़ा मुझको ही मिलती थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था
कोई प्यासा नहीं लौटा वहाँ से
जहाँ दिल था भले दरिया नहीं था
हमारे ही कदम छोटे थे वरना
यहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था
किसे कहता तवज्ज़ो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था
रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था
सज़ा मुझको ही मिलती थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था
कोई प्यासा नहीं लौटा वहाँ से
जहाँ दिल था भले दरिया नहीं था
हमारे ही कदम छोटे थे वरना
यहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था
किसे कहता तवज्ज़ो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था
रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था
4
बड़ी गर्दिश में तारे
थे, तुम्हारे भी हमारे
भी ।
अटल फिर भी इरादे थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
हमारी ग़लतियों ने उसकी आमद रोक दी वरना,
शजर पर फल तो आते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
हमें ये याद रखना है बसेरा है जहाँ सच का,
उसी नगरी से नाते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
सिरे से भूल बैठे हैं उसे हम दोनों ‘हस्ती' जी,
क़दम जिसने सँभाले थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
शहादत माँगता था वक़्त तो हमसे भी ‘हस्ती’ जी,
मगर लब पर बहाने थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
अटल फिर भी इरादे थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
हमारी ग़लतियों ने उसकी आमद रोक दी वरना,
शजर पर फल तो आते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
हमें ये याद रखना है बसेरा है जहाँ सच का,
उसी नगरी से नाते थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
सिरे से भूल बैठे हैं उसे हम दोनों ‘हस्ती' जी,
क़दम जिसने सँभाले थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
शहादत माँगता था वक़्त तो हमसे भी ‘हस्ती’ जी,
मगर लब पर बहाने थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
5
चिराग हो के न हो दिल
जला के रखते हैं
हम आँधियों में भी तेवर बला के रखते हैं
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखतें हैं
बस एक ख़ुद से ही अपनी नहीं बनी वरना
ज़माने भर से हमेशा बना के रखतें हैं
हमें पसंद नहीं जंग में भी चालाकी
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं
कहीं ख़ूलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा
बड़े करीने से घर को सजा के रखते हैं
हम आँधियों में भी तेवर बला के रखते हैं
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखतें हैं
बस एक ख़ुद से ही अपनी नहीं बनी वरना
ज़माने भर से हमेशा बना के रखतें हैं
हमें पसंद नहीं जंग में भी चालाकी
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं
कहीं ख़ूलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा
बड़े करीने से घर को सजा के रखते हैं
6
कौन है धूप सा छाँव सा कौन है
मेरे अन्दर ये बहरूपिया कौन है
बेरूख़ी से कोई जब मिले सोचिये
द्श्त में पेड् को सींचता कौन है
झूठ की शाख़ फल फूल देती नहीं
सोचना चाहिए सोचता कौन है
आँख भीगी मिले नींद में भी मेरी
मुझमें चुपचाप ये भीगता कौन है
अपने बारे में ‘हस्ती’ कभी सोचना
अक्स किसके हो तुम आईना कौन है
मेरे अन्दर ये बहरूपिया कौन है
बेरूख़ी से कोई जब मिले सोचिये
द्श्त में पेड् को सींचता कौन है
झूठ की शाख़ फल फूल देती नहीं
सोचना चाहिए सोचता कौन है
आँख भीगी मिले नींद में भी मेरी
मुझमें चुपचाप ये भीगता कौन है
अपने बारे में ‘हस्ती’ कभी सोचना
अक्स किसके हो तुम आईना कौन है
7
उस जगह सरहदें नहीं होतीं
जिस जगह नफ़रतें नही होतीं
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होतीं
बस्तियों में रहें कि जंगल में
किस जगह उलझनें नहीं होतीं
रास्ते उस तरफ़ भी जाते हैं
जिस तरफ़ मंज़िलें नहीं होतीं
मुँह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होतीं
जिस जगह नफ़रतें नही होतीं
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होतीं
बस्तियों में रहें कि जंगल में
किस जगह उलझनें नहीं होतीं
रास्ते उस तरफ़ भी जाते हैं
जिस तरफ़ मंज़िलें नहीं होतीं
मुँह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होतीं
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी गज़लें
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