ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं
- कतील शिफ़ाई
मन कर रहा था कि क़तील शिफ़ाई की कुछ ग़ज़लें तत्सम पर प्रस्तुत की जाएँ। कतील क़तील शिफ़ाई यानि मुहब्बतों, नज़ाकतों का शायर...
ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
तो तत्सम पर इस बार क़तील शिफ़ाई…, बावजूद इसके कि आपने उन्हें कई बार सुना, पढ़ा होगा..
. प्रदीप कान्त
1
खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें
न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें
सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर
यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें
हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
ब-नाम-ए-अज़मत-ए-किरदार आओ सच बोलें
सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है
पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें
तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें
बजा के ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं
कहाँ के हम भी वफ़ा-दार आओ सच बोलें
जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश
अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें
छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के
नज़र है आईना-बरदार आओ सच बोलें
'क़तील' जिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया
किधर गए वो गुनह-गार आओ सच बोलें
2
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है
3
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे
रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे
ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे
सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे
ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे
4
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ
मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या
हूँ मैं
बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा
वजूद
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ
मैं
मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ
ऐतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ
मैं
किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे
साथ
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं
ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा
नाम
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ
मैं
ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ
मैं
जागा
हुआ ज़मीर वो आईना है "क़तील"
सोने
से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
(कविता
कोश से साभार)
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