भोर की दस्तक
फलटन की रात का
परदा हटा कर
देखा मैंने तारों
को घर लौटते हुए
चाँद छोड़ चुका
था महफ़िल
मुर्गे की एक
कड़क बाँग पर
गली के मोड़ पर
झर चुका था हरसिंगार
महक रहा था आखिरी
पहर
गली में सात
चिड़िया का कोरस भी था
भूरी बकरी की
जम्हाई भी
सुबह की चाय
तलाशने मेढक
निकल पड़ा था
पहन रही थी तितली
पँख
बकरियों को देखा
मैंने
बाड़े से बाहर
निकलते हुए
साईकिल पर सवार
होकर
बैठ गया था ताजा
अखबार
पर मेरे कानों
में आ रही थी
फरीदाबाद में
मिट्टी सानती
हेमलता के कंगन
की खन -खन
सूरज के खाट
छोड़ने से पहले ही
तोताराम ने बना
दिया था एक ठो दिया
फलटन के जागने से
पहले
फरीदाबाद शहर ने
ले ली थी अंगड़ाई
हरबती के हाथ से
बनी
तुलसी चाय का
प्याला सुड़कते हुए
000
वर्चुअल सच
जौनपुर से मेरा
वास्ता नहीं था
जौनपुर उत्तर
प्रदेश का शहर भर था
शहर में रहते
होंगे लोग
होंगे मंदिर
मस्जिद
लगता होगा बाज़ार
मनते होंगे
त्योहार
होते होंगे फ़साद
होते होंगे उस
शहर में पेड़ बादल
धरती आकाश
जौनपुर को मैंने
नहीं देखा है पास से
देखा है तो दूर
से
शहर में रहते हुए
क़मर को
क़मर से मेरा
नाता नहीं था
मेरी कविताओं का
वास्ता था
क़मर को अच्छी
लगती थी कविताएँ
क़मर मेरी
कविताएँ पढ़ता था
मेरी कविताओं के
रास्ते
कभी चला जाता था
इलाहाबाद
टहल आता था
संगम
घूम आता था सतारा
का पठार
क़मर कभी नहीं
आया फ़रीदाबाद
नहीं मिला सका
हरबती से हाथ
हरबती वैसे भी
ताजमहल नहीं थी
पर हरबती से
मिलना उसके लिए खास था
जितना खास मेरी
कविताओं के लिए
क़मर का आना
कविताएं तो अब भी
बुलाएंगी
देंगी क़मर को
आवाज़
क़मर अब नहीं
सुनेगा
क़मर ने बदल लिया
है ठिकाना
उसके घर पर दस्तक
नहीं होती है
कब्र के कान जो
नहीं होते
क़मर अब सो रहा
है मिट्टी में दफ़न
जौनपुर शहर की
मिट्टी से
मेरा इतना ही
नाता है
000
जन्म: 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद
प्रकाशन : दैनिक भास्कर , जनसत्ता ,दैनिक जागरण, प्रभात खबर आदि समाचार-पत्रों में कविताएँ प्रकाशित
नया ज्ञानोदय ,वागर्थ, लमही,परिकथा , आजकल , अहा ज़िन्दगी , कथाक्रम, सेतु,कृति ओर, हमारा भारत संचयन ,परिंदे, ककसाड़, शतदल , दुनिया इन दिनों,यथावत,लोकस्वामी,अक्स,शब्दसंयोजन आदि पत्रिकाओं एवं ब्लाॅग में कविताएँ और संस्मरण, कुछ कविताएँ साझा काव्य संग्रह में भी ..... कहानी गाथांतर पत्रिका में प्रकाशित ।
प्रसारण: 'शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक ...' कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर| आकाशवाणी के इलाहाबाद तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण ...
संपर्क: Ruchi Bhalla, Shreemant,
Plot no. 51, Swami Vivekanand Nagar, Phaltan Distt Satara, Maharashtra 415523 फोन: 9560180202 ईमेल: Ruchibhalla72@gmail.com |
स्मृति विसर्जन
अम्मा सुंदर हैं
लोग कभी उन्हें सुचित्रा सेन कहते थे
अम्मा कड़क टीचर
थीं स्कूल के बच्चे उनसे डरते थे
अम्मा अब रिटायर
हैं और मुलायम हैं
अम्मा गर्मियों
में आर्गेन्ज़ा बारिश में सिंथेटिक
सर्दियों में
खादी सिल्क की साड़ियाँ पहनती थी
साड़ी पहन कर
स्कूल पढ़ाने जाती थीं
वे सारे मौसम बीत
गए हैं
साड़ियाँ अब लोहे
के काले ट्रंक में बंद रहती हैं
ट्रंक डैड लाए थे
उसे काले पेंट से रंग दिया था
लिख दिया था उस
पर डैड ने अम्मा का नाम
सफेद पेंट से
ट्रंक तबसे अम्मा
के आस-पास रहता है
स्पौंडलाइटिस
आर्थराइटिस के दर्द से
अम्मा की कमर अब
झुक गई हैं
कंधे ढलक गए हैं
पाँव की उंगलियां
टेढ़ी हो गई हैं
अम्मा अब
ढीला-ढाला सलवार -कुर्ता पहनती हैं
स्टूल पर बैठ कर
अपनी साड़ियों को धूप दिखाती हैं
सहेज कर रखती है
साड़ियाँ लोहे के काले ट्रंक में
जबकि जानती हैं
वह नहीं पहनेंगी साड़ियाँ
पर प्यार करती
हैं उन साड़ियों से
उन पर हाथ
फिराते-फिराते पहुंच जाती हैं इलाहाबाद
घूमती हैं
सिविललाइन्स चौक कोठापारचा की गलियाँ
जहाँ से डैड लाते
थे अम्मा के लिए रंग-बिरंगी साड़ियाँ
अम्मा डैड के उन
कदमों के निशान पर
पाँव धरते हुए
चलती हैं
चढ़ जाती हैं फिर
इलाहाबाद वाले घर की सीढ़ियाँ
घर जहाँ अम्मा
रहती थीं डैड के साथ
लाहौर करतारपुर
और शिमला को भुला कर
घर के आँगन से
चढ़ती हैं छत की ओर पच्चीस सीढ़ियाँ
अम्मा छत पर जाती
हैं
डैड का चेहरा
खोजती हैं आसमान में
शायद बादलों के
पार दिख जाए
उन्हें
रंग-बिरंगे मौसम
जबकि जानती हैं
बीते हुए मौसम ट्रंक में कैद हैं
अम्मा काले ट्रंक
की हर हाल में हिफ़ाज़त करती हैं
सन् पचपन की यह
काला मुँहझौंसा पेटी
अम्मा के पहले
प्यार की आखिरी निशानी है
000
प्रेम
किसी से पहली
नज़र का प्यार हो जाना
ठीक वैसे ही हो
जाता है प्यार
जैसे जन्मते ही
हो जाता है नवजात शिशु को
माँ के मीठे दूध
से
पिता की गुनगुनी
गोद से
देखता है जब
दुनिया को
आँखें मलते हुए
दुनिया के प्यार
में पड़ जाता है
देखता है चाँद को
उसे उंगली के इशारे
से पास बुलाता है
तारे देखता है और
मुट्ठी में चमक भर लेता है
उड़ते पंछी को
देखता है
तो खुद में खोजने
लगता है पर
पेड़ों को देखते
ही
उस पर चढ़ आता है
हरा रंग
नदी को देखते ही
उसकी आँखों में उतर आता है
सपनों का आसमानी
जल
छूते ही महबूब के
होठों को
अपनी हथेली पर पा
जाता है घी-शक्कर
मुश्किल नहीं
होता है पहली नज़र में
प्यार का हो
जाना
मुश्किल होता है
आखिरी क्षणों तक
प्यार का बने रह जाना
000
समय के विरुद्ध
समय
सोचता है एक
जल्लाद
जब रात गये काम
से वापस
अपने घर पहुंचता
है ......
कवि कार्ल
सैंडबर्ग !
वह कुछ नहीं
सोचता है
थक चुका होता है
वह
दिहाड़ी की रोटी
कमा कर
उसके हाथ उसका
दिल
उसका दिमाग
तक थका हुआ होता
है
उस वक्त उसे
चाहिए होती है
एक कप गरम
कॉफी
चार स्लाइस हैम
दो अंडे
और परिवार का साथ
दुनियादारी की
बातों से वह बचता है
जानता है ......
दुनिया में अब
दुनिया नहीं रहती
जैसे अखबार में
खबर नहीं होती
बेसबॉल में गेंद
नहीं होती
फिल्मों में
फिल्म नहीं होती
वह फिल्म नहीं
देखता
जबसे देखी है
उसने दीवार पिक्चर
विजय के हाथ में
जब गोद दिया था
मेरा बाप चोर है
जल्लाद ने अपने
हाथ को
दुनिया से बचाया
है
वह देखता है
टी.वी. पर
कपिल की कॉमेडी
और हँसता जाता है
बेसबब
हँसते हुए कटी
मुर्गियों के गम को भूल जाता है
काँटे से उठा कर
खाने लगता है ऑमलेट
ऑमलेट खाते हुए भी जल्लाद को दुख नहीं होता
मुर्गी को काट कर
बेच कर
घर लौटा होता है
बच्चों के लिए
किताबें
बीवी के लिए
दुपट्टा घर लाता है
जल्लाद वही नहीं
होता
जिसके हाथ में
रस्सी होती है
जल्लाद चाँद भी
होता है
जो रात का कत्ल
करता है
जल्लाद सूरज भी
होता है
दिन को काट देता
है
सबसे बड़ा जल्लाद
वक्त होता है
कार्ल सैंडबर्ग !
वक्त वक्त पड़ने
पर
सब कुछ सिखा देता
है
जैसे कक्षा तीन
में पढ़ते
अनवर को सिखाया
था
कि पहले पकड़ना
हाथों से मुर्गी
के पाँव
फिर उसकी गर्दन
पलट देना
000
ब्रह्मांड की
अंतर्यात्रा
रात के बारह का
वक्त है
तापमान 28 डिग्री
है
फलटन के आसमान
में एक टुकड़ा चाँद है
चाँद एकदम तन्हा
है
मैंने आसमान के
सारे तारे बटोर लिए हैं
एक-एक तारे को
जोड़ कर
मैं रास्ता माप
रही हूँ
मुझे बनानी है
लंबी एक सड़क
जो जाती है
इलाहाबाद तक
पर उससे पहले
मुझे बीच रास्ते
में ठहरना है
रुकना है दिल्ली
वहाँ रोता हुआ एक
बच्चा है
जिसकी माँ खो गई
है
वह बच्चा मेरे
सपनों में आता है
यह वही बच्चा
है
जिसके रोने की
आवाज़ सुन कर
निदा फ़ाज़ली ने
कहा है
घर से मस्जिद है
बहुत दूर
चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए
बच्चे को हँसाया जाए
मुझे उसे हँसाना है
मुझे उसे हँसाना है
देखना है उसे
हँसते हुए
जैसे मुकद्दर का
सिकंदर में
अपनी तकदीर पर
हँसता है एक बच्चा
खिलखिलाता है
जोर-जोर से
ईश्वर की करामात
पर
और हँसते-हँसते
बन जाता है
सिकन्दर.........
मुझे उस बच्चे को
सिकन्दर पुकारना है
देखना है उसे
दुनिया को फ़तह करते हुए
पुकारना है उसे
कह कर
एलेक्जेंडर द
ग्रेट
इससे पहले कि वह
बच्चा ओझल हो जाए
गुम जाए दिल्ली
की गलियों में
इससे पहले कि
बच्चा चाँद को
इससे पहले कि
चाँद पर चढ़ जाए फफूँद
मुझे बचाना है
चाँद को बताशे की तरह
देखना है बच्चे
को चाँद का बताशा
कुतरते हुए
देखनी है तब उसके
उजले दाँतों की हँसी
सुना है उस बच्चे
के मुँह में दिखता है ब्रह्मांड
वह बच्चा रात की
तन्हाई में बाँसुरी बजाता है
घूमता रहता है
दिन भर दिल्ली की सड़कों पर
मुझे उस बच्चे से
प्यार हुआ जाता है
मैं यह बात लिख
रही हूँ
सूरज को साक्षी
मान कर
इस वक्त फलटन का
तापमान 15 डिग्री है
मेरा बुखार उतर
रहा है
000
(चित्र: गूगल सर्च से साभार)
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