शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

सबसे बड़ा जल्लाद वक्त होता है - रूचि भल्ला की कविताएँ


तत्सम पर इस बार रूचि भल्ला की कुछ कविताएँ … , देवेंद्र रिणवा की टिप्पणी के साथ
-प्रदीप कान्त

सहेजी हुई स्मृतियों के चटक रंगों में शब्दों की तूलिका को डुबोकर वर्तमान के केनवास पर पार्थिव और अपार्थिव चित्रों को सृजित करती हुई रुचि भल्ला की कविताऐं किसी भी पाठक को चौंका देने में सक्षम हैं।संवेदनाओं को सरलतम शब्दों लेकिन नए ढब के बिम्बों के सहारे रची गई ये कविताएँ कहीं -कहीं पर बहुत ही आसानी से व्यक्त नहीं हो पाती हैं और पाठक को एकाग्र होकर अर्थ तलाशने के लिए आकर्षित करती हैं और जब परतें खुलने लगती हैं तो भावविभोर भी करती हैं। अधुनतम को भावनाओं के साथ कसी हुई बुनावट के रूप में जोड़ती हुई हमारे सामने "वर्चुअल सच" है और सारी कविताएँ भी अलग-अलग विषयों पर रचित हैं जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हैं

-देवेंद्र रिणवा
09827630379
भोर की दस्तक

फलटन की रात का परदा हटा कर
देखा मैंने तारों को घर लौटते हुए
चाँद छोड़ चुका था महफ़िल
मुर्गे की एक कड़क बाँग पर
गली के मोड़ पर झर चुका था हरसिंगार
महक रहा था आखिरी पहर
गली में सात चिड़िया का कोरस भी था
भूरी बकरी की जम्हाई भी
सुबह की चाय तलाशने मेढक
निकल पड़ा था
पहन रही थी तितली पँख
बकरियों को देखा मैंने
बाड़े से बाहर निकलते हुए
साईकिल पर सवार होकर
बैठ गया था ताजा अखबार
पर मेरे कानों में आ रही थी
फरीदाबाद में मिट्टी सानती
हेमलता के कंगन की खन -खन
सूरज के खाट छोड़ने से पहले ही
तोताराम ने बना दिया था एक ठो दिया
फलटन के जागने से पहले
फरीदाबाद शहर ने ले ली थी अंगड़ाई
हरबती के हाथ से बनी
तुलसी चाय का प्याला सुड़कते हुए
000

वर्चुअल सच

जौनपुर से मेरा वास्ता नहीं था
जौनपुर उत्तर प्रदेश का शहर भर था
शहर में रहते होंगे लोग
होंगे मंदिर मस्जिद
लगता होगा बाज़ार
मनते होंगे त्योहार
होते होंगे फ़साद

होते होंगे उस शहर में पेड़ बादल
धरती आकाश
जौनपुर को मैंने नहीं देखा है पास से 
देखा है तो दूर से
शहर में रहते हुए क़मर को

क़मर से मेरा नाता नहीं था
मेरी कविताओं का वास्ता था
क़मर को अच्छी लगती थी कविताएँ
क़मर मेरी कविताएँ पढ़ता था
मेरी कविताओं के रास्ते
कभी चला जाता था इलाहाबाद
टहल आता था संगम 
घूम आता था सतारा का पठार

क़मर कभी नहीं आया फ़रीदाबाद
नहीं मिला सका हरबती से हाथ
हरबती वैसे भी ताजमहल नहीं थी
पर हरबती से मिलना उसके लिए खास था
जितना खास मेरी कविताओं के लिए
क़मर का आना

कविताएं तो अब भी बुलाएंगी
देंगी क़मर को आवाज़
क़मर अब नहीं सुनेगा
क़मर ने बदल लिया है ठिकाना

उसके घर पर दस्तक नहीं होती है   
कब्र के कान जो नहीं होते  
क़मर अब सो रहा है मिट्टी में दफ़न
जौनपुर शहर की मिट्टी से
मेरा इतना ही नाता है
000


रुचि भल्ला
जन्म: 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद प्रकाशन : दैनिक भास्कर , जनसत्ता ,दैनिक जागरण, प्रभात खबर आदि समाचार-पत्रों में कविताएँ प्रकाशित नया ज्ञानोदय ,वागर्थ, लमही,परिकथा , आजकल , अहा ज़िन्दगी , कथाक्रम, सेतु,कृति ओर, हमारा भारत संचयन ,परिंदे, ककसाड़, शतदल , दुनिया इन दिनों,यथावत,लोकस्वामी,अक्स,शब्दसंयोजन आदि पत्रिकाओं एवं ब्लाॅग में कविताएँ और संस्मरण, कुछ कविताएँ साझा काव्य संग्रह में भी ..... कहानी गाथांतर पत्रिका में प्रकाशित । प्रसारण: 'शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक ...' कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर| आकाशवाणी के इलाहाबाद तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण ... संपर्क: Ruchi Bhalla, Shreemant,
Plot no. 51, Swami Vivekanand Nagar, Phaltan Distt Satara, Maharashtra 415523 फोन: 9560180202
ईमेल: Ruchibhalla72@gmail.com
स्मृति विसर्जन

अम्मा सुंदर हैं लोग कभी उन्हें सुचित्रा सेन कहते थे
अम्मा कड़क टीचर थीं स्कूल के बच्चे उनसे डरते थे
अम्मा अब रिटायर हैं और मुलायम हैं

अम्मा गर्मियों में आर्गेन्ज़ा बारिश में सिंथेटिक
सर्दियों में खादी सिल्क की साड़ियाँ पहनती थी
साड़ी पहन कर स्कूल पढ़ाने जाती थीं
वे सारे मौसम बीत गए हैं

साड़ियाँ अब लोहे के काले ट्रंक में बंद रहती हैं 
ट्रंक डैड लाए थे उसे काले पेंट से रंग दिया था
लिख दिया था उस पर डैड ने अम्मा का नाम
सफेद पेंट से
ट्रंक तबसे अम्मा के आस-पास रहता है

स्पौंडलाइटिस आर्थराइटिस के दर्द से
अम्मा की कमर अब झुक गई हैं
कंधे ढलक गए हैं
पाँव की उंगलियां टेढ़ी हो गई हैं
अम्मा अब ढीला-ढाला सलवार -कुर्ता पहनती हैं
स्टूल पर बैठ कर अपनी साड़ियों को धूप दिखाती हैं
सहेज कर रखती है साड़ियाँ लोहे के काले ट्रंक में
जबकि जानती हैं वह नहीं पहनेंगी साड़ियाँ
पर प्यार करती हैं उन साड़ियों से

उन पर हाथ फिराते-फिराते पहुंच जाती हैं इलाहाबाद
घूमती हैं सिविललाइन्स चौक कोठापारचा की गलियाँ
जहाँ से डैड लाते थे अम्मा के लिए रंग-बिरंगी साड़ियाँ
अम्मा डैड के उन कदमों के निशान पर
पाँव धरते हुए चलती हैं
चढ़ जाती हैं फिर इलाहाबाद वाले घर की सीढ़ियाँ
घर जहाँ अम्मा रहती थीं डैड के साथ

लाहौर करतारपुर और शिमला को भुला कर
घर के आँगन से चढ़ती हैं छत की ओर पच्चीस सीढ़ियाँ
अम्मा छत पर जाती हैं
डैड का चेहरा खोजती हैं आसमान में
शायद बादलों के पार दिख जाए
उन्हें रंग-बिरंगे मौसम
जबकि जानती हैं बीते हुए मौसम ट्रंक में कैद हैं

अम्मा काले ट्रंक की हर हाल में हिफ़ाज़त करती हैं
सन् पचपन की यह काला मुँहझौंसा पेटी
अम्मा के पहले प्यार की आखिरी निशानी है
000

प्रेम

आसान होता है
किसी से पहली नज़र का प्यार हो जाना

ठीक वैसे ही हो जाता है प्यार
जैसे जन्मते ही हो जाता है नवजात शिशु को
माँ के मीठे दूध से
पिता की गुनगुनी गोद से

देखता है जब दुनिया को
आँखें मलते हुए
दुनिया के प्यार में पड़ जाता है
देखता है चाँद को
उसे उंगली के इशारे से पास बुलाता है
तारे देखता है और मुट्ठी में चमक भर लेता है
उड़ते पंछी को देखता है
तो खुद में खोजने लगता है पर
पेड़ों को देखते ही
उस पर चढ़ आता है हरा रंग
नदी को देखते ही उसकी आँखों में उतर आता है
सपनों का आसमानी जल
छूते ही महबूब के होठों को
अपनी हथेली पर पा जाता है घी-शक्कर

मुश्किल नहीं होता है पहली नज़र में
प्यार का हो जाना                                
मुश्किल होता है
आखिरी क्षणों तक प्यार का बने रह जाना
000

समय के विरुद्ध समय

सोचता है एक जल्लाद
जब रात गये काम से वापस
अपने घर पहुंचता है ......

कवि कार्ल सैंडबर्ग !

वह कुछ नहीं सोचता है
थक चुका होता है वह
दिहाड़ी की रोटी कमा कर
उसके हाथ उसका दिल
उसका दिमाग
तक थका हुआ होता है

उस वक्त उसे चाहिए होती है
एक कप गरम कॉफी 
चार स्लाइस हैम दो अंडे
और परिवार का साथ

दुनियादारी की बातों से वह बचता है
जानता है ......
दुनिया में अब दुनिया नहीं रहती
जैसे अखबार में खबर नहीं होती
बेसबॉल में गेंद नहीं होती
फिल्मों में फिल्म नहीं होती

वह फिल्म नहीं देखता
जबसे देखी है उसने दीवार पिक्चर
विजय के हाथ में जब गोद दिया था
मेरा बाप चोर है
जल्लाद ने अपने हाथ को
दुनिया से बचाया है

वह देखता है टी.वी. पर
कपिल की कॉमेडी
और हँसता जाता है बेसबब

हँसते हुए कटी मुर्गियों के गम को भूल जाता है
काँटे से उठा कर खाने लगता है ऑमलेट 
ऑमलेट  खाते हुए भी जल्लाद को दुख नहीं होता
मुर्गी को काट कर बेच कर
घर लौटा होता है

बच्चों के लिए किताबें
बीवी के लिए दुपट्टा घर लाता है

जल्लाद वही नहीं होता
जिसके हाथ में रस्सी होती है

जल्लाद चाँद भी होता है
जो रात का कत्ल करता है

जल्लाद सूरज भी होता है
दिन को काट देता है

सबसे बड़ा जल्लाद वक्त होता है
कार्ल सैंडबर्ग !

वक्त वक्त पड़ने पर
सब कुछ सिखा देता है

जैसे कक्षा तीन में पढ़ते
अनवर को सिखाया था
कि पहले पकड़ना
हाथों से मुर्गी के पाँव
फिर उसकी गर्दन पलट देना
000

ब्रह्मांड की अंतर्यात्रा

रात के बारह का वक्त है
तापमान 28 डिग्री है
फलटन के आसमान में एक टुकड़ा चाँद है
चाँद एकदम तन्हा है

मैंने आसमान के सारे तारे बटोर लिए हैं
एक-एक तारे को जोड़ कर
मैं रास्ता माप रही हूँ

मुझे बनानी है लंबी एक सड़क
जो जाती है इलाहाबाद तक
पर उससे पहले
मुझे बीच रास्ते में ठहरना है 
रुकना है दिल्ली
वहाँ रोता हुआ एक बच्चा है
जिसकी माँ खो गई है
वह बच्चा मेरे सपनों में आता है

यह वही बच्चा है 
जिसके रोने की आवाज़ सुन कर
निदा फ़ाज़ली ने कहा है
घर से मस्जिद है बहुत दूर
चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए

मुझे उसे हँसाना है
देखना है उसे हँसते हुए
जैसे मुकद्दर का सिकंदर में
अपनी तकदीर पर हँसता है एक बच्चा
खिलखिलाता है जोर-जोर से
ईश्वर की करामात पर
और हँसते-हँसते बन जाता है
सिकन्दर.........

मुझे उस बच्चे को सिकन्दर पुकारना है
देखना है उसे दुनिया को फ़तह करते हुए
पुकारना है उसे कह कर
एलेक्जेंडर द ग्रेट
इससे पहले कि वह बच्चा ओझल हो जाए
गुम जाए दिल्ली की गलियों में
इससे पहले कि बच्चा चाँद को
निचोड़ कर फेंक दे दिल्ली की नालियों में
इससे पहले कि चाँद पर चढ़ जाए फफूँद
मुझे बचाना है चाँद को बताशे की तरह
देखना है बच्चे को चाँद का बताशा
कुतरते हुए

देखनी है तब उसके उजले दाँतों की हँसी
सुना है उस बच्चे के मुँह में दिखता है ब्रह्मांड
वह बच्चा रात की तन्हाई में बाँसुरी बजाता है
घूमता रहता है दिन भर दिल्ली की सड़कों पर
मुझे उस बच्चे से प्यार हुआ जाता है
मैं यह बात लिख रही हूँ
सूरज को साक्षी मान कर
इस वक्त फलटन का तापमान 15 डिग्री है
मेरा बुखार उतर रहा है
000

(चित्र: गूगल सर्च से साभार)

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