कोई भी
कला एक ऐसा माध्यम होती है जिसमे प्रेम से लेकर समाज तक सभी व्यक्त किया जा सकता
है, और इसी कविता भी | हर कवि अपनी कविताओं में इन्ही सब चीज़ों को समेटता है | सुधीर का कवि भी यही करती है| कभी वह गोबर के उपलों
के माध्यम से सिक्का-विहीन लोगों का अंतिम विकल्प व्यक्त करता है तो कभी कंधे की
मजबूती या अपने कंधे के धोखे से उपयोग को लेकर चिंतित नज़र आता है | तत्सम पर इस बार सुधीर कुमार सोनी की कुछ कविताएँ .....
प्रदीप कान्त
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अंतिम विकल्प
गोबर से बने
उफलों में
भागकर आना चाहती है
आग
अनाज पककर
चले गये गोदामों में
बिचौलिये
खड़े हैं अपने हिस्से ऊगाहने के लिये
जिसके पास सिक्का है
वह
आग को भगाकर
उफले तक ले आएगा
जिसके पास नहीं है
वह
अनाज
बिचौलिये
और उफलों के बीच
भूख बनकर बैठा रहेगा
विकल्प यह है
कि वह
सरकार की दया का पात्र बने
या सगे-सम्बंधियों/पड़ोसियों का
या फिर मौत का दया का पात्र बने
अंतिम विकल्प तो तय ही है
०००
मकड़ी
मकड़ी के जाल बुनने की गति में
कोई बदलाव नहीं आया है
उसी तरह वह युगों से बुन रही है
अपना जाल
मकड़ी
ऐसे समय बुन रही है
जाल
जब सारे बुनकर छोड़ते जा रहे हैं
कपड़े बुनना
सर पर हाथ धरे बैठें हैं
सरकार का मुँह ताक रहें हैं
मकड़ी
फिर भी बुन रही है जाल
लगातार
और
सभी घरों की गृहणियाँ
एक दिन जाल को समेटकर फेंक देती हैं
बाहर
इन्हें नहीं चाहिये मुआवजा
न गृहणियों से
न सरकार से
मकड़ी को घर का कोना
साफ़-सुथरा खटकता है
और फिर वह
बुनती है अपना जाल बार-बार
बार-बार झाड़ू से फेंक दिये जाने के बावजूद
०००
सूरज /चाँद / तारे
बाँस से बनी
गोल पर्री में
माँ
बड़ी
पापड़ बनाकर
छत पर सुखाने रखती है
मुझे
बड़ी तारों सा दिखायी देती है
पापड़ चाँद / सूरज सा दीखते हैं
लगता है
जैसे किसी दिन
हाथ उठाकर
माँ ने ही टाँगे होंगे आसमान में
चाँद /सूरज /तारे
०००
कंधे
कंधे
अब अपनी मजबूती को तरस रहें हैं
वह बोझ
जो कभी हमारे पूर्वज उठाया करते थे
हम
असमर्थ हैं
हमारे माता-पिता भी
यह जानते हैं
कि श्रवण कुमार की तरह
हमारे बेटे के कंधे मजबूत नहीं हैं
शायद
किसी की प्रेमिका को
पत्नि को
कंधे से सर टिकाकर
सुकून मिल जाता होगा
लेकिन इससे
कंधे मजबूत हैं यह तो सिद्ध नहीं होता
कंधे आजकल
किसी को धोखे से मारने के लिये
बहुत ज्यादा
उपयोग में लाये जा रहें हैं
उसके लिये
कंधा मजबूत कर लिया जाता है
जब तक बन्दूक की नली
उस पर टिकी है
यह मजबूरी भी है मजबूती दिखाना
आखिर कोई हाथ गिरे तो
नर्म सा
एहसास लिए कंधे पर हमारे
मैं सोंच ही रहा था
कि एक हाथ गिरता है
पत्थर की तरह
मेरे कंधे पर
०००
हम तुम सिर्फ हम हैं
यह कौन गुनगुनाया
हवा में
लगा जैसे तुम गुनगुना रही हो
मुझसे छिपकर
घर की दीवारें
खिड़कियाँ
दरवाजे भी तुम्हारे साथ हो लिये
मुझसे छिपाया
कि तुमने गुनगुनाया
अच्छा चलो
कुछ पल बिताएं साथ-साथ
करे कुछ काम साथ-साथ
तुम आटा गूंथों
और
मेरा हाथ शामिल हो जाये
गूंथने में
तुम
आरती करो
मेरा हाथ शामिल हो जाये
ईश्वर से विनती करने में
तुम
मैले-कुचैले
कपड़े इकठ्ठे करो
मैं मलता हूँ साबुन
तुम निचोड़कर मैल को बहा दो
चलो
इस बारिश में
छाते के नीचे
बूंद-बूंद भींगे हम
तुम अपना बाँया कन्धा बचाते-बचाते
भींग ही जाना
मैं अपना दाँया कन्धा बचाते-बचाते
भींग जाऊँगा
आओ
बैठो जरा
अब महसूस करो
कि आहिस्ता-आहिस्ता
मेरी बाँहे गिरती है
तुम्हारी बाँहों में
आहिस्ता-आहिस्ता
तुम्हारी साँसे
घुलती है
मेरी साँसों में
धीरे धीरे
मेरे हाथ
उलझते हैं तुम्हारे बालों में
शब्द कुछ नहीं
बस एहसास ही रहेगा
कि हम-तुम सिर्फ हम हैं
कहेंगे कुछ नहीं
देखेंगी हमारी आँखे
इस समय
किसी वाक्य
किसी व्याकरण
किसी मुहावरे की जरूरत नहीं
०००
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सुधीर कुमार सोनी
जन्म: २६. ०५.१०६०
साहित्यक उपलब्धि: देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों व पत्रिकाओं मे में कविताएँ
प्रकाशित
कादम्बिनी साहित्य महोत्सव में कविता पुरुस्कृत
विश्व हिंदी सचिवालय मारीशस से कविता को प्रथम पुरूस्कार
स्थानीय नाटकों का गीत लेखन
एक संग्रह ''शब्दों में बची दुनिया '' बोधि प्रकाशन से
सम्पर्क: अंकिता लिटिल क्राफ्ट ,सत्ती बाजार रायपुर, [छत्तीसगढ़]
ब्लॉग: srishtiekkalpna.blogspot.com
ई मेल: ankitalittlecraft@gmail.com, मोबाईल: 09826174067
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