तत्सम पर इस बार मुनिया की दुनिया ...........
प्रदीप कान्त
इसकी असली रचयिता है मुनिया की माया… कोशिश केवल उसे शब्द देने वाली हमारी छाया...
(मुनिया छायाचित्रों मे है)
(मुनिया छायाचित्रों मे है)
स्वरांगी साने
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किस्सा 1
सामने के घर में रहती है बमुश्किल तीन साल की मुनिया…कभी-भी हलकी बयार-सी आती है। बाकायदा पूछती है- मी आत येऊ (मैं अंदर आऊँ), आपके जवाब को हामी ही मानते हुए बिना इंतज़ार वह अंदर भी आ जाती है। उसकी
अपनी दुनिया है, उसमें आप है, आपकी बातों के उसके अपने जवाब है…आपको लाजवाब करते
हुए।
आज आई..तो मैं उसे उसके जन्म के समय की कोई घटना सुनाने लगी…
मुनिया- क्या जब मैं बॉर्न हुई थी, तब की बात है..
मैं- हाँ, जब तुम बॉर्न हुई थी..
मुनिया- पर उससे पहले तो आप बॉर्न हुई होंगी
मैं- हाँ…पर वो तो सालों पहले..
मुनिया- पर मेरे बॉर्न होने के पहले तो मेरी दीदिया बॉर्न हुई
मैं- हाँ
मुनिया- उससे पहले यह..वह..वह…वह…
तो किस्सा यह कि मुनिया के बॉर्न होने से पहले और कौन बॉर्न हुआ, और उससे पहले
कौन, उससे पहले कौन…की रेल चल पड़ी
है…जब वह रुकेगी तब तक मैं भूल जाऊँगी कि मैं क्या कह रही थी…इसे कहते हैं चकरघिन्नी..पर बड़ी प्यारी वाली
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किस्सा 2
मुनिया आते ही साथ बोल पड़ी- बाबा (पिताजी) को आज घर से ऑफ़िस का काम करना है।
मैं- ओह्ह…कितना बोरिंग न
मुनिया-तभी तो मैं ऑफ़िस नहीं जाती
…और मैं कभी जाऊँगी भी नहीं
अलबत्ता बमुश्किल तीन साल की मुनिया इस साल तो प्ले स्कूल में जाने वाली है, पहली बार और
वह ऑफ़िस क्यों नहीं जाती की बतकही कर रही थी। ग़ज़ब
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किस्सा 3
आज पता चला कि मैं तो गोल घूम ही नहीं सकती।
..क्योंकि फ्रॉक पहनकर ही गोल घूमा जा सकता है और नया फ्रॉक
पहनकर तो और भी अच्छे से
अब आप तो फ्रॉक पहनती ही नहीं, कैसे गोल-गोल, गोल-गोल घूम पाओगी!
इति उवाच मुनिया
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किस्सा 4
रात के दस बज गए थे। मैंने अपनी बेटी को बुलाया और बाकी सब बच्चों को भी
कहा अपने-अपने घर जाओ। मुनिया को और खेलना था।
मैं- नहीं बेटा..बाहर इतनी रात गए नहीं खेलते, बहुत रात हो गई।
मुनिया- तो मैं आपके घर खेलूँगी।
मैं- नहीं बेटा अब खाना खाओ, सो जाओ।
मुनिया- बाबा (पिता) आने
वाले हैं।
मैं- अरे वाह। तब तो घर जाओ। यदि वे घर आए और उन्हें पता चला कि तुम घर पर नहीं
हो तो फिर ऑफ़िस चले जाएँगे।
…. मुनिया लपक कर घर चली गई। कितनी मासूम होती है न यह
उम्र। उसे सच लगा कि पिता ऐसा भी कर सकते हैं..सुबह के गए
हैं, अब आएँगे और मैं न मिली तो फ़िर ऑफ़िस चले जाएँगे।
मतलब ये ऑफ़िस वाले, दिन के वे सारे घंटे छीन लेते हैं जो पिता के जाने पर उनके बच्चे उनकी राह
तकते बिताते हैं। देर रात थक कर आने वाले पिता, देर रात
थक चुकी मुनिया…पर दोनों की एनर्जी फिर फुल ऑन होती है और
मेरे घर तक मुनिया की खिलखिलाहट की गूँज आती है।
…ओह पर फिर सुबह होगी, …पिता को
फिर ऑफ़िस जाना होगा…और तब मुनिया का रोना सुनाई देगा- ‘बाबा नका न जाऊ ऑफिस’ …
अबकी मुनिया आएगी तो उससे कहूँगी चलो हम मिलकर ऑफिस से कट्टी कर लेते हैं..जो सबके ‘बाबा’ को ले जाकर ‘बाबू’
बना देते हैं। मुनिया ‘बाबू बनना’ क्या होता है नहीं जानती, वह केवल ‘बाबा’ जानती है..
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किस्सा 5
उस दिन वह आई…
वैसे ही दरवाज़ा खोलते ही सीधे भीतर और खाट के नीचे जा छिपी…मैंने उसे देखा…मैंने उसे आते देखा..उसे खाट के नीचे जाते देखा..छिपते देखा…
तब भी वह बोली मुझे ढूँढो, मैं कहाँ हूँ
मैं झुक गई और खाट के नीचे उससे आँखें दो-चार हुई..तो..वह
बोल उठी…ऐसे नहीं, यहाँ नहीं
ढूँढना मुझे, बाकी जगह ढूँढो
मैं उसे बाकी जगह ढूँढने लगी..यह जानते हुए भी कि वह खाट के नीचे है..मैं परदे के पीछे देखने लगी, किवाड़ की ओट में, खिड़की के पास, बरामदे में…कहाँ हो..कहाँ हो…
तब मुनिया जी बोलीं – मैं खाट के नीचे हूँ, मुझे ढूँढो…
मैंने भी ऐसी खुश दिखाई कि जैसे खजाना मिल गया…और उसे ढूँढ लिया…
पर मुनिया से एक और छोटी पड़ोसन चुनिया है…महज़ डेढ़ साल की..उसका तो खेल ही अजब।
उसे जहाँ जाने से मना करो…वह वहाँ जाती है…और खुद की आँखें बंद कर जाती है।
उसे लगता है कि उसने आँखें बंद कर ली मतलब कोई उसे नहीं देख पा रहा…अजब
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किस्सा 6
एक खिड़की है और खिड़की के पार एक पेड़…उस पेड़ पर आने वाले कई पक्षी
मुनिया उस दिन आई तो खिड़की की ओर उसकी पीठ थी..मेरा चेहरा खिड़की
की तरफ़ था…जाहिर है मुझे खिड़की के पार का दिख रहा था, उसे नहीं।
पत्तियों के खड़खड़ाने की आवाज़ हुई और उसने श्श्श किया
फिर फुसफुसाकर बोली कौन है
मुझे तो दिख रहा था मैंने कहा कौआ है
मुनिया- नहीं कबूतर है
मैं- अरे कौआ है
मुनिया – कबूतर है
… कितना बड़ा पाठ उससे खेलते-खेलते
मिल गया। उसकी पीठ थी पर वह मान रही थी कि कबूतर है, मैं
देख रही थी, उसे कह रही थी कौआ है..पर वह मानने को तैयार नहीं थी। यही करते हैं न हम..ईश्वर
हमारे सामने खड़े हो हमें सत्य बता रहे होते हैं, तब भी
हम सत्य की ओर पीठ करे खड़े रहते हैं और चाहते हैं कि ईश्वर वहीं कहे जो हम चाह रहे
हैं..
वाह री मेरी मुनिया..तुम तो ज्ञान दे गई
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किस्सा 7
मैं काम कर रही थी..किचन का काम था, फिर ऑफ़िस का…
मुनिया को खेलना था…
मैंने मुनिया से कहा अभी नहीं, बाद में खेलेंगे
वह बोली तीन बजे
मैंने हाँ कह दिया तीन बजे
उसने यह कब कहा था कि कब, कौन-से दिन तीन बजे।
वह मेरे वादे को भूल गई होगी पर मुझे लगता रहा, इसी तरह हम
तमाम ज़रूरी-गैर ज़रूरी कामों में ही उलझे रहते हैं और हम तो
खेलना ही भूल जाते हैं..खेलना..बेवजह
हँसना…खिलखिलाना…
जबकि परमानंद है मुनिया
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किस्सा 8
मुनिया इस साल प्ले ग्रुप में जाने वाली है न।
उस दिन उससे यूँ ही पूछा अंग्रेजी की वर्णमाला के बारे में। उसने पहचाना A.. मैं
खुश हो गई अब आगे…तो उसने सीधे V अक्षर को पहचाना, उसका उच्चारण भी उसे नहीं पता..उसे केवल इतना पता है कि यह वह अक्षर है जिससे उसके बाबा (पिताजी) का नाम शुरू होता है।
इतना बता कर उसने अपनी बैठकी उठा ली। मैंने कहा अरे पढ़ तो…पर वह अपनी ही मस्ती
में मगन थी, जिसमें एक भाव था कि उसकी दुनिया में उसके
पिता के नाम का अक्षर है…मतलब पिता है, बाकी दुनिया से क्या! वह तो ठाठ से उठी और कंधे
उचका कर चल पड़ी..
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किस्सा 9
ल लल लssss
गाते हुई आई मुनिया…
मैं- अरे वाह, आज क्या गुनगुना रही हो
मुनिया- जब मैं गाते हुए आऊँगी न, तो मेरे हाथ में वांड (छड़ी) होगी और आप फेयरी (परी) बन जाओगी
?!?!?!
मैं- पर स्टिक (छड़ी) तो
परी के हाथ में होती है, जैसे तुम्हारे हाथ में है
मुनिया- मैं तो हूँ ही फेयरी…पर आप हमेशा काम करती रहती हो, अब जब मैं गाऊँगी न तो आप भी फेयरी बन जाओगी…और वांड
घूमाते ही आपके सारे काम हो जाएँगे..
हाय री मेरी प्यारी मुनिया….
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किस्सा 10
कोई बड़ी फिल्मी हिरोइन आज हमारी सोसाइटी में आई है..लोगों में ग़ज़ब का
उत्साह और उसे देखने के लिए बड़ा मजमा लगा है..बच्चे कैसे
अछूते रहते…उनका हुजूम भी निकल पड़ा है, ऑटोग्राफ़ की डायरी लेकर…बच्चों में मुनिया भी तो है…ठुमक ठुमक कर चल रही है..सबसे अच्छे कपड़े पहने हैं, एकदम चुनकर निकाला ड्रेस, धूप से बचने के लिए
सिर पर टोपी, गॉगल..पैरों में
काली जूती…एकदम हिरोइन को टक्कर देती-सी
तैयार है मुनिया…
और अब सुनिए मुनिया के श्रीमुख से-
‘मैं उस हिरोइन को कहूँगी तुम मेरा ऑटोग्राफ लो, तो मैं तुम्हारा ऑटोग्राफ लूँगी…’
तो बोलो धन्य है न मुनिया
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किस्सा 11
और अभी अभी…
मुनिया विलिस पहनकर घूम रही है…विलिस …अरे मतलब गम बूट..मुनिया के शब्द सुन कई बार लगता है कि इसे ही जनरेशन गैप कहते हैं, पता ही नहीं कि विलिस कहते हैं गम बूट को।
..तो वह विलिस क्यों पहने हैं..
उसका कहना है
मुनिया- ‘विलिस बारिश में पहनते हैं’
मैं- ‘पर अभी बारिश कहाँ हो रही है?’
मुनिया- ‘विलिस पहनूँगी तभी तो बारिश को पता चलेगा कि उसे आना है’
( जिनियस है मुनिया, वरना हम
तो अभी भी मेंढक की टर्र टर्र पर ही अटके हैं, कि मेंढक
टर्राएँगे तो बारिश होगी..पर विलिस पहनने से बारिश होगी…यह कहाँ पता है हमें..हम ओल्ड जनरेशन हाहा)
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किस्सा 12
यूँ तो दरवाज़ा खुला था पर वह एक हाथ से दरवाज़ा बजा रही थी..लगातार..थाप पर थाप…
और उसी लय में अपना एक पैर हिला रही थी और दूसरा हाथ हवा में लहरा रही थी
मैं और बेटी दरवाज़े के पास आकर खड़े हो गए पर मुनिया की सिम्फनी जारी थी..अपनी ही धुन में
मग्न ..कुछ देर बाद उसका ध्यान गया कि अरे हम तो दरवाज़े
पर ही खड़े हैं और वह बेसाख्ता हँसने लगी… हम माँ-बेटी भी अपनी हँसी रोक नहीं पाएँ...हमारी समवेत
खिलखिलाहट की गूँज से अड़ोस-पड़ौस के बंद दरवाज़े भी खुल गए, कि ‘आखिर क्या हुआ?’
..अरे वाह मुनिया, तुमने तो सिद्ध
कर दिया कि आज भी हँसी में बंद दरवाज़ों को खुलवाने की ताकत है।
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किस्सा 13
उसकी दीदिया ने इतनी तेज़ आवाज़ में कहा कि पूरी इमारत को सुनाई देने के लिए
काफी था…मुनिया नाराज़ है।
…और मुनिया गलियारे में लिफ्ट के पास जाकर खड़ी हो जाती है, मुँह फुगाए। फिर ऑफ़िस जाने वाले अंकल-आन्टी, कॉलेज जाने वाले भैया, स्कूल जाने वाली दीदी, मंदिर जाने वाली चिंटू की दादी..सभी उससे पूछते हैं, क्या हुआ-क्या हुआ। मुनिया लिफ्ट, कॉल करने से उसके आने तक का हिसाब जानती है, और
लिफ्ट किस फ्लोर से आ रही है उस हिसाब से किसी को तपाक से, किसी से थोड़ी नानुकर के बाद अपनी नाराज़गी का कारण बता देती है…अपने काम से जाने वाला हर शख्स उससे वादा करता है कि वह उसकी समस्या निपटा
देगा।
कोप भवन न सही, लिफ्ट से सटा वह कोना मुनिया के गुस्से का भाजन भले ही बनता हो लेकिन
मुनिया के पूरे फ्लोर से मिलने वाले लाड़ का भी अकेला साक्षी होता है…
कोई उसे वहाँ खड़े होने से मना करता है, कोई उसकी माँ को आवाज़ देकर बाहर बुलवाता है..मुनिया की माँ उसकी चिरौरी करते हुए घर ले जाती है..मुनिया
के दोनों हाथ में लड्डू..माँ भी उसकी साइड और उस फ्लोर के
सभी लोग भी । हाहा।
--
किस्सा 14
मुनिया जब भी घर आती है, बैठक को अपने हिसाब से सजा देती है। मतलब उन छोटे पीढ़ों, चौकियों को लेती है, स्टूल को भी..और सबको एक कतार में लगा देती है।
‘अरे पर क्यों’?
‘संगीत कुर्सी (म्यूजिकल चेयर) के लिए’।
‘अरे पर क्यों’?
‘कोई भी आएगा और इस तरह लगा-लगाया हो
तो आते ही खेल सकता है’।
इसके बाद फिर मेरी हिम्मत नहीं होती कि ‘अरे पर क्यों’ पूछने की, कि ‘भला कोई बाहर से आने वाला आते ही संगीत कुर्सी
क्यों खेलेगा’?
मुनिया की दुनिया और बड़ों की दुनिया जो अलग है। मुनिया की दुनिया में सब
बच्चे है, उसकी माँ भी और उसकी सहेली भी और सहेली की माँ भी…जो
जब चाहे, जहाँ चाहे खेल सकते हैं। बड़ों की दुनिया ‘बूढ़ाते’ जाने की दुनिया है, जिसमें ‘सलीके का अनुशासन’ ही ‘संयत’ जीने का एकमात्र तरीका है।
मुनिया के जाने के बाद मैं फिर सब कुछ बड़ों की तरह ‘करीने’ से रख देती हूँ।
वह फिर जब भी घूमते-घामते लौटकर आती है.. फिर सब ‘सजा’ देती है। बिना कोई गिला-शिकवा
किए…वह मुझे नहीं डाँटती कि मैंने उसका खेल क्यों बिगाड़ दिया…(जबकि हम तो पहली फुर्सत में बच्चों को डाँटने के लिए ही बैठे होते हैं)
दुनिया को ‘सजा-सँवरा’ देखना चाहती है
मुनिया…पर दुनिया तो उसे ही ‘अस्त-व्यस्त’ पड़े होना कहती है।
अब बोलो…
–
किस्सा 15
हम लौट रहे थे…अहाते तक आते ही मुनिया ने घोषणा कर दी कि ‘यह
स्टेशन (/प्लेटफार्म) है और
हम ट्रैन के लिए रुके हैं’।
लिफ़्ट आई तो मैंने भी उसके सुर में सुर मिलाते हुए कहा ‘चलो जल्दी, ट्रैन आ गई’।
लिफ़्ट के अंदर जाकर मैं वांछित मंज़िल के लिए बटन दबाने लगी तो मुनिया ने
बताया वह तो टिकट लेने का प्वॉइंट है।
मैं भी राजी हो गई, मैंने पूछा बताओ ‘कहाँ का टिकट निकाले!’
मुनिया- घर का
मैं- पर किस शहर का?
मुनिया- जिस शहर में मेरा घर है, उस शहर का
मैं- तुम्हारा घर किस शहर में है?
मुनिया- जहाँ मैं रहती हूँ उस शहर में
मैं- पर जगह तो बताओ?
मुनिया- घर
मैं- अरे जगह, प्लेस, तुम
जहाँ रहती हो वो कौन-सी जगह है?
मुनिया- घर
…खैर टिकट मतलब बटन दबा दिया और गाड़ी मतलब लिफ़्ट चल पड़ी।
लिफ़्ट रूकी, हम दोनों उस लिफ़्ट सह ट्रैन से बाहर आ गए।
अब मुनिया साहिबा को अपने घर जाना चाहिए था न। पर मुनिया के लिए घर, घर जैसा होता
है, इसका-उसका क्या और तेरा-मेरा क्या।
वह न अपने घर गई, न मेरे..तीसरे ही घर का दरवाज़ा खुला था, वहाँ चिंकी-मिंकी खेल रहे थे, बस मुनिया भी वहाँ चली गई, और क्या
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किस्सा 16
- “तुम सब इतना शोर क्यों मचा रहे हो?”
मुनिया- “नहीं तो!”
“तो?”
मुनिया- “…खेल रहे हैं!”
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किस्सा 17
दरवाज़ा बजा। मैं समझ गई कि घंटी तक हाथ न पहुँच पाने वाली यह मुनिया की ही
आमद है।
मुनिया ने उधर से कहा- ‘डकी (डक-बतख) आया है’।
मैंने दरवाज़ा खोलते हुए ‘क्वैक-क्वैक’ (बतख की
आवाज़) किया। मुनिया एकदम ख़ुश हो गई।
मुनिया ऐसे ही कई नाम धरती है। कभी कहती है कि वह ‘सिंड्रेला’ है। कभी खुद को ‘सॉफ़्टी’ कहलवाती
है..और जिस दिन वह ‘सॉफ़्टी’ होती है, उस पूरे दिन उसे कोई डाँट नहीं सकता, ऐसा उसका ख़ुद का फ़रमान है। फ़िर जिस दिन वह ‘डकी’
होती है उस दिन भी नहीं, और ‘सिंड्रेला’ होने पर तो बिल्कुल नहीं।
भई हमें तो बचपन में साल का एक ही दिन पता था-जन्मदिन..जिस दिन डाँट खाने से राहत मिलने की कुछ संभावना होती थी। पर हमारी मुनिया
तो सयानी है, इस तरह हर दिन कोई नया स्वाँग रच अपने लाड़
लड़वा लेती है।
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किस्सा 18
उसने मुँह में लॉलीपॉप पकड़ी थी और दोनों हाथों से ताली बजा रही थी। मैं
उत्साहित हो गई और कह बैठी-‘चलो, मैं भी ऐसा ही करती हूँ’।
मैं- ‘क्यों नहीं कर पाऊँगी?’ (मुझे लगा वह फिर अपना
तर्क देगी कि फ्रॉक पहनकर ही ऐसा कर सकते हैं, जैसा
उसने कहा था कि फ्रॉक पहनकर ही गोल घूम सकते हैं, वरना
नहीं)
मुनिया- ‘नहीं कर सकती!’
मैं- ‘अरे! पर तुम्हें देखकर मेरा भी ऐसा करने का मन
कर रहा है’
मुनिया- ‘अरे, आप बड़ी है न, इसलिए
आप ऐसा नहीं कर सकती। बड़े लोग ऐसा नहीं करते’।
...मैं सकते में आ गई। हम मुनिया को जाने-अनजाने क्या सीखा रहे हैं। हम बच्चों से ऐसा नहीं कहते कि तुम बड़े हो गए
हो तो ‘यह’भी कर सकते हो और ‘वह’ भी। हम उनकी काबिलियत को बढ़ाने के नाम पर उन पर
पाबंदियाँ बढ़ाते हैं …क्या करना/ क्या
नहीं करना … मन में बिठाए जा रहे हैं।
…कल को मुनिया भी बड़ी हो जाएगी, और
हम (समाज) उससे भी कहेंगे ‘तुम बड़ी हो गई हो, ऐसा मत करो, वैसा मत करो’।
क्या बड़े होने का मतलब खुशियों से दूर बोझिल जीवन जीना है?
मेरी मुनिया, बड़ी हो जाओ पर तब भी तुम ऐसे ही लॉलीपॉप खाना, चटकारे
लेना, फिसलपट्टी पर चढ़ना-उतरना, झूले में बैठ अपने बालों को उड़ाना-इतराना..इठलाना और पानी में वो धम्म से ‘छssपाssक’ भी करना…
मेरी मुनिया…बड़ी होना पर ऐसे नहीं कि बड़की बन जाओ… भीतर से छुटकी
ही रहना, चुलबुली, शरारती, प्यारी।
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किस्सा 19
‘मम्माss…मम्माsss…’
मुनिया आवाज़ लगा रही थी, उसकी माँ ने पूछा ‘क्या हुआ..?’
मुनिया ने संशोधन किया- ‘रिंकी दीदी मम्माs…’
(अच्छा तो मुनिया खेल रही थी और उससे दो साल बड़ी रिंकी दीदी
उसकी मम्मा बनी थी)
रिंकी दीदी- ‘अच्छा अब मैं ऑफ़िस जा रही हूँ, ठीक’ (खेल-खेल में)
मुनिया- ‘मम्माsss…’
रिंकी दीदी- ‘क्या!’
मुनिया- ‘अरे, आपको नहीं, अपनी
असली मम्मा को बुला रही हूँ। जब आप ऑफ़िस जाओगी, मैं
अपनी मम्मा के पास रहूँगी और जब मम्मा ऑफ़िस जाएँगी तो आप मेरी मम्मा बन जाना’।
मानना पड़ेगा चतरी है मुनिया..!
कुछ देर बाद मुनिया ने अपना टैडी बियर उठा लिया।
मुनिया- ‘यह मेरा बेबी है’।
मैं- ‘अच्छा तो अब तुम मम्मा हो गई, तो रिंकी दीदी
नानी बन गई न’।
मेरे इतना कहते ही रिंकी दीदी और मुनिया दोनों ही ठहाका लगा हँस पड़ी।
मुनिया ने मुझे समझाया- ‘अरे, रिंकी दीदी मेरी मम्मा है और मैं टैडी की
मम्मा’।
मैं- ‘हाँ तो तुम्हारे बेबी की मम्मा की मम्मा तुम्हारे टैडी की नानी हुई न’
मुनिया- ‘ऐसा थोड़े न होता है’
मैं- ‘ऐसे ही तो होता है’
मुनिया- ‘अरे क्या रिंकी दीदी बूढ़ी हैं, जो नानी बनेंगी’
(अब मैं मन में, ‘अरे पर क्या
रिंकी दीदी इतनी बड़ी हैं, कि मम्मी बनेंगी?’)
तो मैं समझी मतलब यह कि हम सबके बचपन से मानस पटल पर होता है कि हम बड़े
बनना चाहते हैं, पर बूढ़े नहीं।
इतने में मुनिया को खरोंच आ गई और वह दौड़ी
‘मम्माsss…’
इस बार उसने ‘रिंकी दीदी मम्माsss…’ नहीं कहा, चोट लगने पर अपनी माँ के पास जाना चाहिए, किसी
और के पास नहीं..हाहाहा…ज्ञानी है
मुनिया!
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किस्सा 20
कुछ बड़ी लड़कियों मतलब उस तथाकथित टीन एज की उम्र से छोटी ही, लड़कियों ने ‘गर्ल्स नाइट आउट’ की योजना बनाई और छुटकियाँ भी
शामिल हो गईं। बिल्कुल वैसा ‘नाइट आउट’ नहीं था..केवल घरों से बाहर मिलने वाले थे और वैफर्स-केक-फ्रूटी जैसी कोई पार्टी करने वाले थे…रात 10 बजे तक…लेकिन
वे बहुत उत्साहित थीं, चार दिनों से उनकी बैठकें हो रही
थीं, उनके किसी ‘सीक्रेट बेस’
में।
…बातें करते-करते वे ‘सीक्रेट’ से ‘ओपन एरिया’
में भी आ जातीं और उनकी योजनाएँ सबके सामने होती…
मुनिया तो होनी ही थी…थी..
मुनिया- ऐसा करते हैं, हमारे घर पर सिंड्रेला की मूवी
देखेंगे
बड़की- अरे नाइट आउट करना है न, आउट…आउट समझी न
मुनिया- हम्म..तो सिंड्रेला जैसा गाउन पहनेंगे सब लोग
…तो सब इस पर राज़ी हो गए। तय दिन (मतलब रात तय हुई) वे मिले। सारी छुटकियाँ-बड़कियाँ, परियाँ लग रही थीं… ‘पैरेंट्स नॉट अलाउड’ थे..वे सब
खुद करने वाली थी, दरियाँ बिछाई जा रही थीं, पेपर प्लेट लग रही थी, सबकी पानी की बोतलें थी, मोबाइल पर गाने थे…केवल हंगामा
तो जैसे कि कहा ‘पैरेंट्स नॉट अलाउड’ थे न…पर
मुनिया ने उसमें जोड़ा ‘बॉयज़ नॉट अलाउड’..वैसे भी उन लड़कियों की योजना थी और उन्होंने लड़कों को शामिल नहीं किया था, लेकिन घोषणा कर उस पर मानो मुनिया ने मुहर लगा दी।
मुनिया इतने से कहाँ रुकती…वह उसकी उम्र के सभी छुटंकों के घर पर गई…उनकी मम्मियों मतलब आन्टियों को अपना प्यारा-सा पिंक
गाउन दिखाया…ठुमकी, मटकी…और ‘अच्छी दिख रही हो’, ‘क्यूट’, ‘प्यारी’ की प्रशंसा बटोरने के बाद लड़कों वाले हर घर
में जाकर कह भी आई.. ‘बॉयज़ नॉट अलाउड’
मुझे उसका यह आत्मविश्वास, यह दीदीगिरी बहुत प्यारी लगी…वो विज्ञापन था न एक
दुपहिया का एकदम याद हो आया...
Boys move out,Girls are in नहीं नहीं.. Why
Should Boys Have all the Fun अब
Girls move out, Boys are in जय हो
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किस्सा 21
मुनिया आज सुबह-सवेरे आई थी, आँखें मलते-मलते..नींद से उठी-उठी ही…और मुझे ‘गुडमॉर्निंग’ बोली, उसके
आने से मेरी ‘मॉर्निंग’ तो वैसे भी ‘गुड’ हो गई थी…
भगवान के आगे धूप-दीप-अगरबत्ती जल रही थी, वह
मंदिर के सामने जाकर बैठ गई
मैं- जय-जय बाप्पा करा
मुनिया- हैलो बाप्पा
मैं- भगवान् को हैलो नहीं कहते, जय करो
मुनिया- गुड मॉर्निंग बाप्पा…बोलूँ
मैंने मुस्कुराते हुए हामी में सिर हिला दिया…मुनिया ने बाप्पा को
गुड मॉर्निंग कहा।
अब वह सारे भगवान् देख रही थी..
मुनिया- ये काउ (गाय) यहाँ
क्यों रखी है?
मैं- यह काउ नहीं नंदी है!
मुनिया- कौन नंदी?
मैं- नंदी बैल!
मुनिया- ??!!??
मैं- ऑक्स!
मुनिया हँस दी…
आह!
मुनिया को कैसे समझाऊँ कि बाप्पा को जय नहीं किया तब भी चलेगा पर बैल कोई
अजनबी प्राणी लगे और ऑक्स समझ में आ जाए तो गड़बड़ है।
आह!!
पर मुनिया कैसे समझेगी कि अभी तो उसके गुडमॉर्निंग बाप्पा कहने पर मैं
मुस्कुराई थी और अब आपत्ति क्यों ले रही हूँ?
आह!!!
हमारी उलझी हुई पीढ़ी जो बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ा रही है और उनके
अपनी भाषा-संस्कृति से छिटकने पर मन मसोस रही है, इस उलझन
से कैसे निकल पाएगी?
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किस्सा 22
दरवाज़े पर ठक-ठक हुई… अभी सुबह के शायद साढ़े सात-पौने आठ हो रहे थे…दूध वाला, पेपर वाला तो उससे पहले ही आ चुका था… वैसे तो मैं
समझ ही गई थी मुनिया होगी…मैंने दरवाज़ा खोला,मुनिया ही थी।
मुनिया बिना कुछ बोले रसोईघर में चली गई अपना ‘खाऊ’ खाने। मुनिया को पता है उसका ‘खाऊ’ कहाँ रखा है, वह वहीं जाती, केवल उतना ही डिब्बा खोलती है, उसे जितना चाहिए, कभी एक-कभी दो, कभी मूड
हुआ तो चार-पाँच..और डिब्बा बंद कर फिर
जगह पर रख देती है। उसे बाकी किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं होता। उसे पता है कि यह ‘खाऊ’ केवल उसका है और केवल उसी का, उस पर एकाधिकार भी।
एक बार तो कहीं बाहर खाना-खाने जाना था…पर उससे पहले भी मुनिया को अपने ‘खाऊ’ की याद आ गई..पार्टी-शार्टी तो सबके लिए थी न, पर यह ट्रीट तो केवल
उसकी है, उसने वैसे ही डिब्बा खोला, ‘खाऊ’ निकाला, मुट्ठी में
थामा और डिब्बा बंदकर यथास्थान रख दिया।
ऐसे ही उसकी एक ख़ास गिलासी (छोटा ग्लास) भी है। जब वह
छोटी थी न, मतलब अब से भी छोटी, तब उसे उस ज़रा-सी तांबे की गिलासी में पानी देती थी, पर अभी भी उसे वही लगती है। अब उस गिलासी से तीन-चार
बार पीएगी, पर चाहिए वही गिलासी। उससे छोटी डेढ़ साल की
चुनिया को एक बार वह गिलासी दी तो मुनिया ने तुरंत एतराज़ भी जताया…सही है वह दमकती गिलासी तो मुनिया की है।
अरे, हाँ…तो कहाँ थे हम…
तो मुनिया ने डिब्बा निकाला, खोला, उसमें से ‘खाऊ’ निकाला, डिब्बा बंद
किया, जगह पर रख दिया। मैंने ऐतिहातन पूछ लिया
मैं- ब्रश किया है न?
मुनिया- हाँ ब्रश किया, पर नहाई नहीं हूँ। (मुनिया ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया)
मैं- कोई बात नहीं, पर बिना ब्रश किए नहीं खाते न
इसलिए पूछा…
मुनिया ने सुना या नहीं पता नहीं, उसने तो फुदकते हुए अपने घर की राह पकड़ी। उसकी माँ ने
मेरे घर से उसके घर के बीच के गलियारे में मुनिया को झिड़का भी – ‘मना किया था न, ऐसे किसी के यहाँ से कुछ नहीं
लेते’। मैंने कहा- ‘अरे कोई बात
नहीं’।
और यकीन जानिए मेरा यह ‘कोई बात नहीं’ कहना, पड़ोसी-धर्म निभाने की औपचारिकता नहीं है। मुझे तो लगता है कि मुनिया जिस अधिकार
से आती है, खाती है, पानी
पीती है…हाँ कभी-कभी तो बाहर खेलते-खेलते, मेरे घर केवल पानी पीने आती है,उसे ऐसे ही करते रहना चाहिए।
बच्चे अपना-पराया कुछ नहीं जानते, फ़िर धीरे-धीरे हम उनके मन में भेद बैठाना शुरू करते हैं, यह तुम्हारा घर है, यह उसका घर है।
फिर चक्र पूरा घूमता है..बुढ़ापे तक आते-आते संज्ञान होता है कि अपना-पराया कुछ नहीं होता…सब अपने हैं। फ़िर सबके प्रति
वात्सल्य भाव जगता है।
पर क्यों न बच्चों में सबसे प्रीत करने का जो भाव है, उसे वैसे ही
रहने दिया जाए..फिर विद्वेष कहाँ टिक पाएगा?
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किस्सा 23
मुनिया आई…सामने काका(अंकल-मेरे पति) थे…काका ने उसे गोदी उठा लिया। गोदी उठाकर हवा में
उछाला, मुनिया खिलखिला दी…मैं यह
सुनकर बाहर आई।
मेरे पति ने बड़ी शान से कहा- ‘देखो मैं सोफे के नीचे कर रहा हूँ, वैसे तो मुनिया नहीं गिरेगी पर गिर भी गई तो सोफे पर गिरेगी, उसे चोट नहीं लगेगी।‘
मैंने कहा- ‘बढ़िया, पंखा भी बंद कर दो’
इस तरह मुनिया की सैफ्टी हो गई।
काका ने मुनिया को चार-पाँच बार हवा में उछाला, झेला…और मुनिया से कहा – ‘काका है कि नहीं सुपर मैन’
और ऐसा कहते हुए मेरी ओर देखा, मैं मुस्कुरा दी…उन्हें लगा मैं
मुग्ध भाव से मुस्कुरा रही हूँ पर मुझे मुनिया की आँखों में तैरती शरारत साफ़ दिख
गई थी…और मेरी मुस्कान का इशारा पति नहीं समझे कि … ‘बंदा तू समझा है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या’
मुनिया ने फ़रमाइश की..दीदी (मतलब मेरी बेटी) के सामने भी एक बार करो…
आज के सुपर मैन (पति) ने मुनिया की दीदी को आवाज़ लगाई
दीदी आई…दीदी के सामने एक बार यह खेल हुआ
दीदी के पीछे-पीछे उसके दीदी के कमरे में ही बैठी उसकी सहेली भी आई…तो उसके सामने एक बार और दिखाने की फ़रमाइश मुनिया ने की…वह भी हो गया..
बाहर का दरवाज़ा खुला था तो मुनिया की दीदिया भी आ गई
अब दीदिया को चिढ़ाने के लिए तो एक बार और यह खेला होना बनता ही था..वह भी हुआ,
फिर एक बार दीदिया के पीछे-पीछे आई चिंकी के सामने, फिर
मिंकी के सामने भी ….
इस तरह पहले चार बार और उसके बाद…पाँच बार और…मतलब नौ बार झेला-झेली के खेल हो चुका था…पति की थकान चेहरे पर दिख
रही थी
मुनिया के चेहरे पर शरारत थी…
पति ने कहा-‘भई मैं तो थक गया’
मुनिया- ‘सुपर मैन नहीं थकता…’
पति- ‘--’
मुनिया- ‘सुपर मैन…सुपर मैन..’
सारे बच्चे भी उसकी आवाज़ में आवाज़ मिला बोलने लगे ‘सुपर मैन’ ‘सुपर मैन’
सब चाह रहे थे सुपर मैन उन्हें भी एक बार इस तरह उछाले
पति ने मुझे देखा..कहा- ‘अरे इन बच्चों से कह दो मैं हूँ सिंपल
मैन’
मैं अपनी हँसी न रोक पाई..
तो बोलो आज की कहानी से क्या शिक्षा मिली…
‘किसी भी लड़की को बित्ते भर की समझने की भूल कभी मत करना’
हाहाहा…
--
किस्सा 24
आज खेलने के लिए कोई नहीं था, नहीं तो न सही..मुनिया तो अकेले
में ही खिलंदड़ दुनिया है।
मुनिया ने हवा वाली बड़ी-सी गेंद को एक टप्पा दिया…
गेंद टप-टप उछलने लगी
मुनिया उछलते हुए उससे आगे निकली और मुड़कर देखने लगी, भागने लगी, गेंद आ रही है या नहीं।
गेंद के साथ उसका यह पकड़मपाटी का अनोखा खेल उस दिन बहुत देर तक चलता रहा, जब तक मुनिया
नहीं थक गई, या कि गेंद…पता नहीं
--
किस्सा 25
आज तो छुट्टी है, पूरे दिन की छुट्टी है..रविवार है और दिन भर खेल चल
रहा है।
मैंने पूछ ही लिया- होमवर्क हो गया क्या
मुनिया चुप..क्ले से रोटी बेलने में मगन
मैं- होमवर्क? और मैंने भवैं उचकाई
मुनिया ने भी भवैं उचकाई, मानो मैं न जाने कैसा बेतूका सवाल कर रही हूँ
मैं- अरे होमवर्क किया क्या?
मुनिया- वो तो घर पर करते हैं….
इतना कह वह फिर अपने काम (खेल) में मगन हो गई
मेरे हाथ क्या हासिल लगा कि होमवर्क घर पर करते हैं…और मुनिया अभी उसके
घर पर नहीं है…सो मेरा सवाल ही ग़लत है। उसकी उचकी भवैं जो कह
रही थी-मतलब सवाल ही बेतूका है।
हाहाहा
किस्सा अभी जारी है…
मुनिया प्यारी है….
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- जन्म ग्वालियर
में, शिक्षा इंदौर
में और कार्यक्षेत्र पुणे
जीवन का लक्ष्यः
कुछ सृजनशील लमहों की खोज
शिक्षाः
- एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक विजेता) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय,
इंदौर से
- बी.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य) प्रथम श्रेणी
- विशेष
योग्यता (Distinction) के साथ कथक
विशारद (Distinction), अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय
मंडल, मिरज (मुंबई)
- डिप्लोमा इन बिज़नेस इंग्लिश, देवी अहिल्या
विश्वविद्यालय, इंदौर
विशेष
- पदन्यास नाम से कथक
नृत्य शाला की स्थापना, संचालन
- अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मंडल, मिरज (मुंबई) द्वारा
मान्यता प्राप्त कथक शिक्षक
- सदस्य, इंटरनैशनल डांस काउंसिल- CID / यूनेस्को
- इंटरनैशनल डांस डायरेक्टरी में नाम सम्मिलित
- भारतीय
भाषाओं के काव्य के सर्वप्रथम और सबसे विशाल ऑनलाइन विश्वकोष-कविता कोश में
रचनाएँ।
- भारत सरकार
के सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र- Center for Cultural Resources
and Training (CCRT) की वेबसाइट के आर्टिस्ट प्रोफाइल में नाम, संक्षिप्त
परिचय शामिल।
पत्रकारिता के क्षेत्र में उपलब्धियाँ
- राज्य स्तर का सर्वोत्तम गोपीकृष्ण गुप्ता
रिपोर्टिंग पुरस्कार, 2004
- उस्ताद अलाउद्दीन खान संगीत अकादेमी द्वारा खजुराहो नृत्य समारोह,
2004 में रिपोर्टिंग के लिए आमंत्रित
- मध्य प्रदेश कला परिषद द्वारा आयोजित मांडु उत्सव -2003 का दैनिक भास्कर के लिए कवरेज
नृत्य, नाटक, रेडियो
और टीवी
- सन् 1992 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित नाट्य
शिविर में निर्धारित आयुसीमा से कम होने के बावज़ूद
चयन
- 1995-96 के दौरान अंतर विश्वविद्यालयीन वाद – विवाद प्रतियोगिता में भाग लिया.
- इंदौर कलैक्टरेट द्वारा आयोजित साक्षरता अभियान, सन् 1991 में जत्था कलाकार के रूप में भागीदारी।
- इंदौर आकाशवाणी द्वारा प्रसारित “उस लड़की का नाम क्या है” रूपक के लिए सन् 1989 भारतीय परिवार
कल्याण विभाग द्वारा प्रथम
पुरस्कार प्रदान किया गया. उसमें
लड़की की भूमिका का निर्वाह।
- पुणे
आकाशवाणी के लिए महाराष्ट्र की आषाढ़ी वारी पर कवि दिलीप चित्रे के वृत्त
चित्र का सन् 2007 में अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण किया जिसे आकाशवाणी का
अखिल भारतीय स्तर का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।
- इंदौर दूरदर्शन पर समाचार वाचक (News
reader) के रूप में
भी कार्य किया।
- शौकिया रंगमंच पर कई
सालों तक अभिनय। कई प्रतिष्ठित मंचों यथा उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी (लखनऊ-सन् 2003),
मध्यप्रदेश कला परिषद (निमाड़ उत्सव- सन् 2004), राष्ट्रीय रामायण मेला
(चित्रकूट- सन् 1996) के मंचों पर कथक प्रस्तुति।
- सच्चिदानंद सोसाइटी कोलकाता द्वारा बैंगलूर में
आयोजित प्रज्ञानपुरुष श्री श्री बाबा ठाकुर को समर्पित अध्यात्मिक संध्या
(शास्त्रीय नृत्य कथक और शास्त्रीय गायन) आयोजन में सूत्र संचालन (मई 2017)।
कार्यक्षेत्र : नृत्य, कविता, पत्रकारिता, संचालन, अभिनय, साहित्य-संस्कृति-कला
समीक्षा, आकाशवाणी पर वार्ता और काव्यपाठ
आयोजन : वाट्सएप्प के दस्तक साहित्यिक समूह के
रचनाकारों की तीसरी बैठक (11-12 फरवरी 2017) के पुणे में दो दिवसीय आवासीय आयोजन
का पूरा दारोमदार अकेले कंधों पर सफलतापूर्वक वहन। जिसमें पुणे के अलावा मुंबई,
फलटण, गुना, भोपाल, इंदौर आदि स्थानों के तीस से अधिक रचनाकारों की भागीदारी।
प्रकाशित कृति :
- काव्य
संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर”
2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से
प्रकाशित और म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यक्रम में म.प्र. के
महामहिम राज्यपाल द्वारा सम्मानित।
- मध्यप्रदेश
साहित्य परिषद द्वारा सन् 1997 से सन् 2000 तक काव्यपाठ हेतु नियमित
आमंत्रित।
- साहित्य
अकादमी और महाराष्ट्र राष्ट्रसभा सभा की गोष्ठी में काव्यपाठ सन् 2008।
- पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशितः कादंबिनी, इंडिया टु़डे (स्त्री), वागर्थ,
नवनीत, साक्षात्कार, भोर, कल के लिए, आकंठ, जनसत्ता (सबरंग), शेष, वर्तमान साहित्य,गोलाकुंडा दर्पण, समावर्तन के रेखांकित स्तंभ में, कलासमय,
मंतव्य-3,
वेबदुनिया, अहा ज़िंदगी, यथावत, मुक्तांगण आसरा, सार्थक नव्या, पल्स ऑफ़
इंडिया, विभोम-स्वर,समय के साखी
आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ-लेख प्रकाशित।
- साहित्य,
कला, संस्कृति और इतिहास की द्वैभाषिक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘सेतु’ में
कविताएँ प्रकाशित।
- कैनडा से
निकलने वाली पत्रिका ‘पंजाब टुडे’ (13 अप्रैल 2017) के भाषांतर में कविताओं
का पंजाबी अनुवाद प्रकाशित।
- मराठी
दिवाली अंक 2015- ‘उद्याचा मराठवाड़ा’ में हिंदी कविता का मराठी अनुवाद
प्रकाशित।
- साथ ही वैबदुनिया ने यू ट्यूब पर मेरी कविताओं को सर्वप्रथम
श्रव्य-दृश्यात्मक माध्यम से प्रस्तुत किया.
- ANUNAD.com/, asuvidha.blogspot.com/,
jankipul.blogspot.com/, kritya.blogspot.com/, medium.com/ samalochan.com/ swaymsidha.blogspot.com/, shabdankan.blogspot.com आदि में लेख-कविताएँ पोस्ट
कार्यानुभव :
- स्वतंत्र
पत्रकारिता सन् 1990 से सन् 1997। इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘प्रभातकिरण’ में स्तंभलेखन, औरंगाबाद से प्रकाशित पत्र ‘लोकमत समाचार’ में रिपोर्टर, इंदौर से प्रकाशित ‘दैनिक भास्कर’ में कला समीक्षक/ नगर रिपोर्टर, पुणे से प्रकाशित ‘आज का आनंद’ में सहायक संपादक और पुणे
के लोकमत समाचार में वरिष्ठ उप संपादक के रूप में कार्य।
वॉइस ओव्हर :
- पुणे स्थित
अंतरराष्ट्रीय कंपनी एस्पायर के लिए 138 दस्तावेजों के वॉइस ओव्हर का कार्य,
सीडी में रूपानंतरण, तमाम डॉक्यूमेंट्स का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद भी।
- प्राची प्रकाशन, मुंबई से सन् 2006 में
प्रकाशित पुस्तक साइकॉलाजी ऑफ लर्निंग एंड टीचिंग (डिप्लोमा इन एजुकेशन के
प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए) का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद।
- उक्त
प्रकाशक के लिए महाराष्ट्र शासन के शिक्षा एवं विस्तार विभाग से स्वीकृत एक
अन्य पुस्तक एनवायरमेंटल स्टडीज एंड सोशल साइंस का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद
(डिप्लोमा इन एजुकेशन के द्वितीय वर्ष के छात्रों के लिए)।
- पुणे
आकाशवाणी के लिए महाराष्ट्र की आषाढ़ी वारी पर कवि दिलीप चित्रे के वृत्त
चित्र का सन् 2007 में अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण, जिसे आकाशवाणी का अखिल
भारतीय स्तर का प्रथम पुरस्कार प्राप्त। (पूर्व उल्लेखित)
- CDAC, पुणे के लिए अब
तक ग्यारह फिल्मों यथा- तीन मराठी फिल्में – देवुल, एक कप चहा, पाली ते
संबुरान, चार कन्नड़ फिल्में कुर्मावतार, ज्ञानपीठ
पुरस्कार से सम्मानित डॉ. के. शिवराम कारंथ के उपन्यास पर आधारित बेट्टदा जीवा-
पहाड़ी इंसान, मौनी एवं स्टंबल,तीन बांग्ला फिल्म निशब्द, जानला एवं सांझबातिर
रूपकथा और एक असमी फिल्म – कोयाद के अंग्रेजी सबटाइटल का हिंदी अनुवाद . साथ
ही तीन फिल्मों के सब टाइटल्स का वेलिडेशन-नाबार (पंजाबी),शिवेरी (मराठी) और
माहुलबनी सेरंग (बांग्ला).
- CDAC, पुणे के लिए-
डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर स्मारक संग्रहालय में रखे जाने वाले छायाचित्रों के
अंग्रेजी कैप्शन का हिंदी अनुवाद का कार्य।
- CDAC, पुणे के लिए-
पेटेंट आवेदन प्रकाशन की 150 से अधिक फ़ाइलों के अनुवाद का कार्य।
- CDAC, पुणे के लिए-
जीवन बीमा संबंधी तीन सौ से अधिक फाइलों का अनुवाद।
- भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान( इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी- आईआईटीएम) और जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र
(सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च सेंटर-सीसीसीआर), पुणे के वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद
मुजुमदार के लिए वैज्ञानिक पर्चों का अनुवाद।
- गार्डियन फार्मेसीज के संस्थापक
अध्यक्ष और ५ बेस्ट सेलर पुस्तकों के लेखक आशुतोष गर्ग के लिए निरंतर अनुवाद का कार्य।
- मूषक एप्प के लिए हिंदी में सेवाएँ प्रदत्त।
अंतिम कार्यकाल :
लोकमत समाचार,पुणे में वरिष्ठ उप
संपादक के रूप में 3 जून 2012 - 31
मई 2015 तक।
संप्रति :
·
वेबदुनिया के लिए स्तंभ लेखन।
·
स्वतंत्र अनुवादक
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ए-2/504, अटरिया होम्स, आर. के. पुरम् के निकट,
रोड नं. 13, टिंगरे नगर, मुंजबा वस्ती के पास, धानोरी, पुणे-411015
3 टिप्पणियां:
मैं तो मुनिया की दुनियां में खो सी गयी।बेहतरीन वर्णन।
मुनिया की छोटी-छोटी बातें बड़ी सीख।
मुनिया की सुंदर छोटी सी दुनिया और बड़ी बड़ी सीख। बहुत आनंद आया।
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