मैं
जीना चाहती हूँ
लेकिन
वैसे
नहीं जैसे तुम चाहते हो...
कविता
का यह स्वर नीलेश रघुवंशी का है| तत्सम पर इस बार नीलेश की कुछ कविताएँ...
प्रदीप कान्त
1
आधी
जगह
जब
भी पेड़ को देखती हूँ
आधा
देखती हूँ
आधा
तुम्हें देखने के लिए छोड़ती हूँ ।
हर
जगह को
आधा
खाली रखती हूँ
सिरहाने
को भी
आधा
छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।
कभी
भी
नदी
को पूरा पार नहीं कर पाती
आधा
पार
जो
छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।
कमल
के पत्ते पर पानी काँपता है
चाँद
काँपता है जैसे राहू के डर से
वसंत
के डर से काँपता है जैसे पतझर
मैं
काँपती हूँ आधेपन से
आधे
चाँद से जल से भरे आधे लोटे से
काँपती
हूँ तुम्हारे आधे प्यार से ।
2
दुख
का सुख
जीवन
में दुख है इतना ज्यादा कि
रह-रहकर
दुख से फूटता है सुख ।
दुख
को पानी नहीं चाहिए
खाद
मिट्टी भी नहीं चाहिए
चट्टानों
के बीच से
कोंपल
की तरह फूटता है दुख ।
सबसे
ज्यादा उर्वर होने का
सुख
है दुख के पास ।
मैं
अपना दुख किससे कहूँ
वो
चट्टान भी तो नहीं कि
कोंपल
की तरह फूट जाऊँ उसके भीतर से ।
आधा
चाँद और एक पूरा तारा
मेरे
मन के बहुत करीब हैं
चाँद
और तारे के बीच खाली जगह है
खाली
जगह को भरने के लिए
क्या
आकाश में चाँद की तरह उगना इोगा
या
टँकना होगा तारे की तरह ।
क्या
वो
अब भी चाँद तारों को देखता होगा
वही
जिसके
भीतर से कोंपल की तरह
फूटना
चाहती हूँ मैं ।
3
धुन
और बातें
सब्जी
वाले ने तराजू उठाया और मैं
हाथ
ठेले पर रखी सब्जियों को देखते
मन
ही मन रंगों का संयोजन करने लगी ।
‘‘वाह,
कितनी
ताजा मटर है ।’’
मैं
एक नहीं, मुफ्त की कई मटर खा गई
झोला
लेते और मटर चबाते पूछा-
-‘‘कितने हुए भैया ?’’
-‘‘मैडम जी, एक सौ बीस ।’’
-‘‘अरे बाप रे, कितनी मंहगी हो गई सब्जी ।’’
-‘‘जी, मैडम जी बहुत मंहगी हो गई ’’कहते
सब्जी वाले ने मटर के ढेर को अपनी
ओर समेट लिया ।
-‘‘गरीब आदमी क्या करता होगा भैया ?
कौन
सी सब्जी खाता होगा ।’’
-‘‘क्या पता’’ कहते उसने कंधे उचकाए
और
सब्जियों पर पानी छींटने लगा ।
हम
कम गरीब ने
बहुत
ज्यादा गरीबों के बारे में अमीरों की तरह बात की ।
--------
स्वचालित
सीढ़ियों पर दो मध्यवर्गीय आदमी
नीचे
से ऊपर जा रहे है
जबकि
सीढ़ियाँ धीमी गति से ऊपर से नीचे आ रही हैं
वे
चढ़ते चले जा रहे हैं और लोग हँसते जा रहे हैं
-‘‘ऐ भैया, किधर जाने का ?’’
एक
चढ़ते हुए कहने वाले की ओर पलटता है
और
सीढ़ियों के रहस्य को समझते
अकबकाते
हुए नीचे की ओर उतरने लगता है
दूसरा
है कि धुन में चढ़ता चला जा रहा है
लोगों
का हुजूम हँस रहा है और कह रहा है
जाओ , जाओ,
जाओ, खूब ऊपर जाओ ।
धुन
में नीचे आती सीढ़ियों पर
वह
चढ़ता चला जा रहा है
धुन
आदमी को कहीं नहीं पहुँचा रही है ।
4
खेल
और युद्व
खेल
को खेल की तरह खेलो
खेल
को युद्व में मत बदलो ।
खेल
की आड़ में युद्व-युद्व खेलोगे
तो
मैदान नहीं बचेंगे फिर ।
बिना
खेल मैदान के
पहचाने
जाएंगे हम ऐसे देश के रूप में
जो
युद्व को एक खेल समझता है
और
इस तरह खेल की आड़ में
देश
को युद्व की आग में झोंकता है ।
5
इस
लोकतंत्र में
मैं
जीना चाहती हूँ
लेकिन
वैसे
नहीं जैसे तुम चाहते हो
मैं
पेड़ को पेड़ कहना चाहती हूँ
उसके
हरेपन और नए पत्तों में
खिल
जाना चाहती हूँ
तुम
उसके इतिहास में जाकर कहते हो
ये
हमारे मूल का नहीं
तुम
पेड़ की मूल प्रजाति में विश्वास करते हो
मुझे
पेड़ के संग हरियाने से रोकते हो ।
जिस
दिन गिलहरी ने
अपना
घोंसला बनाया पेड़ में
उस
दिन से मेरा मन पेड़ के भीतर रहने लगा
गिलहरी
कहीं भी किसी भी जगह गाँव देश परदेश में
बना
सकती है किसी भी पेड़ पर अपना घर
एक
गिलहरी दूसरी गिलहरी से
कभी
नहीं पूछती- तुम्हारा पूरा नाम क्या है ?
मैं
नदी सा बहता जीवन जीना चाहती हूँ
तुम
हो कि नदी को घाट से पाट देना चाहते हो
वाल्मिकी
घाट पर खड़े हो झाँकती हूँ नदी में
तुमने
नदी को नदी से पाट दिया ।
किसी
एक को राष्ट्रीय बग्गी में सुषोभित करते होे
लेकिन
हम
सतरंगी सपनों के संग घोड़ी पर भी नहीं बैठ सकते
तुमने
हमसे हमारे द्वीप छीने
सारा
नमक ले लिया और सबसे ज्यादा
खारेपन
की उम्मीद हमीं से करते हो ।
देश का
संविधान कहता है
हमें
वोट देने का अधिकार है
तुम
कहोगे लोकतंत्र में ऐसा ही होता है
मैं
कहती हूँ
जब
नदी को नदी, पेड़ को पेड़ और
अंधेरे
को अंधेरा नहीं कह सकते तो
इस
लोकतंत्र में
किससे
कहूँ अपने मन की बात ।
6
दरवाजे़
के पार
कुछ
दिन बाद याद ही नहीं रहेगा कि
दरवाजे
की जगह दीवार थी ।
दीवार
के पार कुछ नहीं दिखता था
दरवाजे
के पार दिखते हैं
पेड़
के नीचे नल से पानी पीते लोग
गाय
की पनीली आँखों में तैरती है पेड़ की परछाई
कुत्ते
पानी कम पीते और भौंकते ज्यादा हैं
पानी
को दूध की तरह सूँघती गुर्राती है बिल्ली
गुर्राहट
से उसकी चूहे बिल से बाहर नहीं निकलते
नन्हीं
चोंचों में चुग्गा डालते
सन्नाटे
का संगीत रचती है नीली चिड़िया
गीली
जमीन में
धँसी
हुई हैं एक चम्मच और चप्पल
दिन
ढलते
पानी
की परछाई पड़ती है चम्मच पर
चम्मच
चाँदी का भ्रम रचते बुलाती है पास
मिलता
है चम्मच और चप्पल को दिन रात पानी
फिर
भी वे कभी किसी को छाया नहीं दे सकेंगे
इस
बात पर
देखते
ही बनती है पेड़ की इतराहट ।
दीवार
के पार कुछ नहीं दिखता था
दरवाजे
के पार कितना कुछ दिखता है ।
7
बिना
फल का पेड़
फलदार
पेड़ नहीं हूँ मैं
काटो, पत्थर मारो, चारों
ओर मेरे
राख
को लपेट दो
कोसो
मुझे, गरियाओ, हो सके तो लतियाओ भी
फल
नहीं हैं मेरे पास
बेवजह
जमीन को घेरता जा रहा हूँ
कब
तक छीनोगे हमसे हमारी जगह
नदी, पर्वत, नाले
नहर, बंजर जमीनें
सब
तुम्हारी आँख की किरकिरी हैं
क्रेता-विक्रेता
बन चुके तुम
क्या
आकाश को भी बेदखल करोगे
उसकी जगह से ।
नीलेश
रघुवंशी
जन्म:
04 अगस्त 1969 गंज बासौदा मध्य प्रदेश
शिक्षा:
एम0 ए0 हिन्दी साहित्य ,
एम0 फिल0 भाषा विज्ञान
कविता
संग्रह: घर
निकासी, पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में, कवि ने कहा (चुनी हुई कविताएँ), खिड़की खुलने के बाद
उपन्यास:
एक कस्बे के नोटस
बच्चों
के नाटक:
एलिस इन वंडरलैण्ड,
डॉन क्विगजोट, झाँसी की रानी
छूटी
हुई जगह स्त्री कविता पर नाटय आलेख
अभी
ना होगा मेरा अन्त निराला पर नाटय आलेख , ए
क्रिएटिव लीजेण्ड
सैयद
हैदर रजा एवं ब0 व0 कारंत पर नाटय आलेख और भी कई नाटक एवं टेलीफिल्म में पटकथा
लेखन
सम्मान
1997
का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ( ‘हण्डा‘ कविता
)
1997
का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान ( ‘घर निकासी‘
कविता संग्रह )
1997
दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान ( ‘घर निकासी‘
कविता संग्रह )
2004
का केदार सम्मान (‘पानी का
स्वाद‘ कविता संग्रह )
2006
का प्रथम शीला स्मृति पुरस्कार (‘पानी का
स्वाद‘ कविता संग्रह )
2009
भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का (‘अंतिम पंक्ति में‘ कविता
संग्रह )
युवा
लेखन पुरस्कार
2012
का स्पंदन कृति पुरस्कार (‘अंतिम
पंक्ति में‘ कविता संग्रह )
2013
का प्रेमचंद स्मृति सम्मान
(‘एक कस्बे के नोटस‘ उपन्यास )
2014
का शैलप्रिया स्मृति सम्मान
(‘एक कस्बे के नोटस‘ उपन्यास )
Best Literary Adaptation of Acclaimed work,
डी0 डी0 अवार्ड 2003 (गाथा एक लम्बे सफर की वृत्रचित्र)
डी0
डी0 अवार्ड 2004 (वृत्रचित्र ‘‘जगमग जग कर दे’’)
सम्प्रति:
दूरदर्शन केन्द्र,
भोपाल में कार्यरत
सपंर्क:
ए0 40
, आकृति गार्डन्स नेहरू नगर, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मो.:
9826701393
1 टिप्पणी:
बढ़िया कविताएं पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया 🌹🌹
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