शनिवार, 25 दिसंबर 2021

हर मंज़र में इक तस्वीर अलावा है - संजू शब्दिता की ग़ज़लें

देख रही मेरी आँखों का दावा है
हर मंज़र में इक तस्वीर अलावा है 

संजू शब्दिता का यह एक शेर बता देता है कि शायर की दृष्टि को कितना तीक्ष्ण होना  चाहिए।  पर्दे पर जो नज़र आ रहा है उसके पीछे कौन है, उसी की शिनाख़्त तो ज़रूरी है जो संजू का शायर यहाँ कर रहा है। तो तत्सम पर इस बार संजू शब्दिता….


प्रदीप कान्त

1
देख रही मेरी आँखों का दावा है
हर मंज़र में इक तस्वीर अलावा है

उम्र गवाँ कर मंज़िल तक तो आ पहुँचे
फिर हम समझे मंज़िल एक छलावा है

रूह की सूरत दिखने में कुछ और है पर
हम जो दिखते हैं वो महज़ दिखावा है

इन ज़ख्मो को कैसे भर जाने दूँ मैं
इन के दम से मेरे पास मुदावा है

कहाँ हुआ ओझल वो मेरी आँखों से
ध्यान हटा लेना बस एक भुलावा है

2
ख़ुद ही प्यासे हैं समन्दर तो फ़क़त नाम के हैं
भूल जाओ कि बड़े लोग किसी काम के हैं

दस्तकें ख़ास उसी वक़्त में देता है कोई
चार छह पल जो मेरी उम्र में आराम के हैं

कोई क्या लाग लगाए कि बिछड़ना है अभी
हमसफ़र आप के हम एक ही दो गाम के हैं

आसमानों की बुलन्दी का सफ़र तय कर के
लौट आते हैं परिन्दे जो मेरे बाम के हैं

शाइरी चाय तेरी याद चमकते जुगनू
बस यही चार तलब रोज़ मेरी शाम के हैं

3
निकल गया है मेरे हाथ से निज़ाम मेरा
मुझे ही आँख दिखाता है अब ग़ुलाम मेरा

मैं क्या बताऊँ ख़ुशामद के क्या तरीक़े हैं
कभी पड़ा ही नहीं जाहिलों से काम मेरा

मेरा भी नाम उछाला था मेरे दुश्मन ने
अब आसमाँ की जबीं पर लिखा है नाम मेरा

अब आप लोग तमाशे से हो गए फ़ारिग़
लो हो गया है चलो काम अब तमाम मेरा

जो बच रहे थे मेरे साथ हम कलामी से
वो आज पढ़ रहे हैं ढूंढ़ कर कलाम मेरा

4
ख़ुद से कुछ यूँ उबर रहे हैं हम
इक भंवर में उतर रहे हैं हम

ज़िन्दगी कौन जी रहा है यहाँ
मौत में जान भर रहे हैं हम

मौत के बाद ज़िन्दगी होगी
ये समझकर ही मर रहे हैं हम

अब संवरने का लुत्फ़ जाता रहा
आईने में बिखर रहे हैं हम

इश्क़ पहले भी तो हुआ है हमें
क्या नया है जो डर रहे हैं हम

वक़्त अपनी जगह पे क़ायम है
बस मुसलसल गुजर रहे हैं हम

5
सफ़र की रात है दरिया को पार करना है
सफ़ीना डूब गया है मुझे उबरना है

तुम्हारे बाद अभी इन शिकस्ता क़दमों से
पहाड़ चढ़ने हैं दरियाओं में उतरना है

मैं ख़ुश-लिबास समझ कर पहन रही हूँ क़फ़न
मैं ज़िन्दगी हूँ मेरा काम रंग भरना है

मिटाना ख़ुद है मुझे अपने अंदरूं का शोर
मगर ये काम बहुत ख़ामोशी से करना है

मिटा रही हूँ चटख रंग सब शबीह के मैं
कि कैनवस को बहुत सादगी से भरना है

किसी की मौत पे अक्सर ये सोचती हूँ मैं
मुझे भी कल को इसी राह से गुज़रना है

6
गुमाँ पानी का हो ऐसा नहीं था
वो दरिया था कोई सहरा नहीं था

ख़ुशी भी जान ले सकती है इक दिन
मुझे इस ग़म का अंदाज़ा नहीं था

ये दीवारें बहुत उकता गई थीं
इन्हें इक रंग में रहना नहीं था

मैं हर पहलू से उसको सोचती थी
फ़क़त सोचा ही था समझा नहीं था

किसी दरवेश की सोहबत में थी मैं
मेरा मन यूँ ही बंजारा नहीं था

हमारे अहद की ये ख़ासियत थी
दरीचे थे प दरवाज़ा नहीं था

7
पर्वतों के बीच वो जो इक नदी थी
अक्स अपना मैं उसी में देखती थी

रंग मुझ पर एक भी चढ़ता नहीं था
सादगी भी क्या बला की सादगी थी

आह वो मुझको किसी में देखता था
आह मैं उसको किसी में देखती थी

सिर्फ़ माज़ी कह के फ़ुर्सत हो लिए हम
क्या बताते क्या हमारी ज़िन्दगी थी

तुम फ़क़त इस जिस्म तक ही रह गए ना
मैं तुम्हें ख़ुद से मिलाना चाहती थी

चाँद सूरज तक मेरे आँगन में उतरे
ज़िन्दगी बस एक तेरी ही कमी थी

000

संजू शब्दिता


जन्म स्थान -  भादर अमेठी

शिक्षा     - एम.ए . (हिंदी साहित्य) नेट, जे.आर.एफ.
प्रकाशन - कविता कोष, रेख़्ता,  पाखी, कथादेश, अनुभूति, हस्ताक्षर, गंभीर समाचार,गुफ़्तगू,अट्टहास, विभोम स्वर, कविकुम्भ, संवेदन, शब्द-व्यंजना, हिन्दुस्तान दैनिक, चेतान्शी जर्नल,जानकीपुल,स्त्रीकाल आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉगों, साझा संग्रहों में ग़ज़लें प्रकाशित।

ग़ज़लों को सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायकों ने  अपना स्वर दिया है।

एफ़ एम गोल्ड रेडियो चैनल से दो बार ग़ज़ल का प्रसारण।

समय-समय पर आकाशवाणी इलाहाबाद एवं हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद में ग़ज़ल- पाठ।

पुरस्कार/ सम्मान - गुफ़्तगू साहित्यिक संस्था (इलाहाबाद) द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान प्राप्त, वाग्धारा यंग अचीवर अवार्ड.(वाग्धारा संस्था,  मुम्बई)

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