बहुत समय बाद ब्लॉग पर कोई पोस्ट लगा
रहा हूँ, बल्कि पोस्ट लगाने पर मजबूर हो रहा हूँ| हुआ यूँ कि यश भाई का व्हाट्सएप
मेसेज आया जिसमे वे हरजीत को याद कर रहे हैं और बेचैन हो रहे हैं तो सोचा की इससे
बेहतर क्या हो सकता है कि यश भाई की यह छोटी सी टिप्पणी और हरजीत की गज़लें| तो
तत्सम पर इस बार हरजीत की गज़लें…
प्रदीप कान्त
सौ प्रतिशत सरदार, असरदार गज़लकार
हरजीत जितना प्यारा ग़ज़लकार था, उतना ही प्यारा इंसान भी। प्यारा इंसान था, शायद इसलिये भी बहुत प्यारी ग़ज़लें कहता था। ग़ज़ल और वो दो रूह एक जान थे। बच्चों के सुंदर सुंदर लकड़ी के प्यारे-प्यारे खिलौने भी बनाता था। बड़ी शान से कहता था कि तुमने कभी किसी सरदार को ग़ज़लगोई करते सुना है, देखो मैं सौ प्रतिशत सरदार हूँ और उतना ही प्रतिशत ग़ज़लगो भी।मैं सरदार होकर भी, दोनों मुश्किल काम आसानी से कर लेता हूँ। शतरंज की बाज़ी भी जीत लेता हूँ और असरदार ग़ज़लें भी कह लेता हूँ। मुझसे पहले सरदार होकर भी ग़ज़ल कहने की नहीं अलबत्ता गाने की ज़ुर्रत जगजीत सिंह साहब ज़रूर कर चुके थे। कल अनुज अंशु मालवीय के ख़ज़ाने से अचानक ही हरदिलअजीज़ हरजीत सिंह का दीवान बरामद हुआ । ए जी अड्डे इलाहाबाद में भाई श्रीप्रकाश मिश्र के साथ वह हमारी मित्र मंडली में आया था और मन मोह गया था । फिर तो देहरादून में वो मेरा हमगिलास भी हुआ । वसु याद आते हैं -
अब तक जो आसपास था जाने कहाँ गया
वो मेरा हमगिलास था जाने कहाँ गया
देहरादून के टिपटॉप रेस्टोरेंट में चाय पीकर रम की बोतल साथ लेकर मसूरी के लिए चल पड़ना याद आता रहा । ग़ज़ल के मामले में संजीदा गुफ्तगू याद आती रही । उसकी सहमत और असहमत होने की भंगिमाएँ याद आती रहीं । पूरी रात सो नहीं पाया । उसके कुछ चुने हुए शेर यहाँ दे रहा हूँ । यक़ीनन इन्हें पढ़कर आप भी मेरी तरह बेचैन हो उठेंगे -
फ़साद जब से हुए हमने फिर नहीं देखी
किसी के नाम की तख़्ती यहाँ मकानों में।
वो जो इक शख़्स यहाँ अम्न का पुजारी था
मौत पर उसकी वसीयत के ये झगड़े कैसे
शहर के एक किनारे पे लोग प्यासे थे
शहर के बीच फ़वारे में जब कि था पानी
अफ़वाह है उस आग में कुछ भी बचा नहीं
लेकिन ख़बर ये है कि वहाँ कुछ हुआ नहीं
ढेर लाशों के लगाना फूँकना आबादियाँ
बददिमाग़ी बूढ़ी क़ौमों की निशानी है अभी
तमाम शहर में कोई नहीं है उस जैसा
उसे ये बात पता है यही तो मुश्किल है
ये शामें-मयकशी भी है यादगार कितनी
नासेह शेख़ वाइज़ ज़ाहिद हैं हम पियाला
मैंने देखा है तुझे उस नज़र से जाने क्यूँ
जाने क्यूँ मैंने तुझे उस नज़र से देखा है
आई चिड़िया तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था
ये हरे पेड़ हैं इनको न जलाओ लोगों
इनके जलने से बहुत रोज़ धुआँ रहता है
नदियों के पुल बनेंगे ख़बर जबसे आई है
कश्ती चलाने वाले झुका कर नज़र मिले ।
साहिल क़रीब देख मुसाफ़िर तो ख़ुश हुए
मल्लाह चुप था उसके लिए आम बात दी।
- यश मालवीय
1
अपने मन का रूझान क्या देखूँ
लौटना है थकान क्या देखूँ
आँख टूटी सड़क से हटती नहीं
रास्ते के मकान क्या देखूँ
मैंने देखा है उसको मरते हुए
ये ख़बर ये बयान क्या देखूँ
कहने वालों के होठ देख लिये
सुनने वालों के कान क्या देखूँ
इस तरफ से खड़ी चढ़ाई है
उस तरफ से ढलान क्या देखूँ
2
सूरज हज़ार हमको यहाँ दर-ब-दर मिले
अपनी ही रौशनी में परीशाँ मगर मिले
नक़्शे सा बिछ चुका है हमारा नगर यहाँ
आँखें ये ढूँढती हैं कहीं अपना घर मिले
फिर कौन हमको धूप की बातें सुनायेगा
तुम भी मिले तो हमसे बहुत मुख़्तसर मिले
कच्चे मकान खेत कुँए बैल गाड़ियाँ
मुद्दत हुई है गाँव की कोई ख़बर मिले
नदियों के पुल बनेंगे ख़बर जब से आई है
कश्ती चलाने वाले झुकाकर नज़र मिले
3
आते लम्हों को ध्यान में रखिये
तीर कुछ तो कमान में रखिये
एक तुर्शी बयान में रखिये
एक लज़्ज़त ज़बान में रखिये
यूँ भी नज़दीकियाँ निखरती हैं
फ़ासले दरमियान में रखिये
वरना परवाज़ भूल जायेंगे
इन परों को उड़ान में रखिये
आप अपनी ज़मीन से दूर न हों
खुद को यूँ आसमान में रखिये
हर ख़रीदार खुद को पहचाने
आईने भी दुकान में रखिये
4
जलते मौसम में कुछ ऐसी पनाह था पानी
सोये तो साथ सिरहाने के रख लिया पानी
सिसकियाँ लेते हुए मैंने तब सुना पानी
मुझसे तपते हुये लोहे पे पड़ गया पानी
इस मरज़ का तो यहाँ अब कोई इलाज नहीं
शहर बदलो कि बदलना है अब हवा-पानी
आसमां रंग न बदले तो इस समन्दर से
ऊब ही जायें जो देखें फ़क़त हरा पानी
शहर के एक किनारे पे लोग प्यासे थे
शहर के बीच फवारे में जब कि था पानी
उस जगह अब तो फ़क़त ख़ुश्क सतह बाक़ी है
कल जहाँ देखा था हम सबने खौलता पानी
जब समंदर से मिलेगा तो चैन पायेगा
देर से भागती नदियों का हाँफता पानी
5
रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख़ हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ो से उतर कर ही मिलेगी बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रस्तों को
देखना है कि धुआँ उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते है
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर कि इक नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
6
उसके लहजे में इत्मिनान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था
सब अचानक नहीं हुआ यारो
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था
रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था
आयीं चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आस्मान भी था
7
सीढ़ियाँ कितनी बड़ी हैं सीढ़ियाँ
मुझको छत से जोड़ती हैं सीढ़ियाँ
गाँव के घर में बुज़ुर्गों की तरह
आजकल सूनी पड़ी हैं सीढ़ियाँ
इन घरों में लोग लौटे ही नहीं
धूल में लिपटी हुई हैं सीढ़ियाँ
सिर्फ बच्चों की कहानी के लिए
आसमानों में बनी हैं सीढ़ियाँ
इस महल में रास्ते थे अनगिनत
अब गवाही दे रही हैं सीढ़ियाँ
उस नगर को जोड़ते हैं सिर्फ पुल
उस नगर की ज़िन्दगी हैं सीढ़ियाँ
इस इमारत में है ऐसा इंतजाम
हम रुकें तो भागती हैं सीढ़ियाँ
8
एक बड़े दरवाज़े में था छोटा सा दरवाज़ा और.
अस्ल हक़ीक़त और थी लेकिन सबका था अन्दाज़ा और
मैं तो पहले ही था इतने रंगों से बेचैन बहुत,
मेरी बेचैनी देखी तो उसने रंग नवाज़ा और
कितने सारे लोग यहां हैं अपनी जगह से छिटके हुए,
चेहरे और लिबास भी और हैं हालात और तक़ाज़ा और
जब तक इसकी दरारों को इस घर के लोग नहीं भरते,
तब तक इस घर की दीवारें भुगतेंगी ख़मियाज़ा और
ख़ुश्बू रंग परिन्दे पत्ते बेलें दलदल जिसमें थे,
उस जंगल से लौट के पाया हमने ख़ुद को ताज़ा और
9
दूब को चाहिए हरा मौसम
और मुझ को खिला खिला मौसम
देख कर एक शख़्स को तन्हा
कुछ से कुछ और हो गया मौसम
सीढ़ियों पर जमी थी काई बहुत
पैर रखते फिसल गया मौसम
इन दिनों कुछ नहीं हुआ मुझ से
हर तरफ़ गूँजता रहा मौसम
सब ने चिपकाए काले काग़ज़ थे
किस झरोके से झाँकता मौसम
एक तिरपाल उड़ के दूर गिरी
हाट को रौंदता गया मौसम
और सब लोग बात करने लगे
जाने किस शख़्स ने कहा मौसम
उम्र भर उस के साथ रहता है
एक बच्चे की आँख का मौसम
10
उस ने बहती नदी को रोक लिया
फिर किसी ने उसी को रोक लिया
सारा दिन मैं न मिल सका उस से
चाँद ने धूप ही को रोक लिया
एक बच्चे ने माँग ली सीपी
रेत ने लहर ही को रोक लिया
भोली-भाली नहीं रही अब वो
उस ने अपनी हँसी को रोक लिया
अज्नबिय्यत बहुत ही प्यारी थी
मैं ने इस दोस्ती को रोक लिया
11
बंद घरों की दीवारों के अंदर बाहर धूल
आईने पर धूल जमी है और चेहरे पर धूल
दिन भर जिन के पाने को दिल रहता है बेताब
शाम की आँधी कर जाती है सारे मंज़र धूल
इतनी शरारत करती है सब लोग करें तौबा
बरसातें आने से पहले शहर में अक्सर धूल
धूल में खेले धूल ही फाँकी धूल ही उन का गाँव
धूल ही उन के तन की चादर उन का बिस्तर धूल
क़िस्तों में सब सफ़र किए हैं क़िस्तों में आराम
दूर गई बैठी फिर चल दी थोड़ा रुक कर धूल
1 टिप्पणी:
वाकई लाज़वाब कहन है ,हर शेर उम्दा ,बेमिसाल, लाजवाब
प्रदीप जी शुक्रिया ऐसी गजलें पढ़वाने के लिए
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