पिछले दिनों राजभाषा के नीतिनिर्देशों को लेकर गृह मंत्रालय का एक जो नया 'परिपत्र' प्रकाश में आया है। इस परिपत्र के बिन्दु 5 (IV) व 6 गौर से पढे जाएँ जिनमें हिन्दी के कठिन शब्दों के उपयोग के बज़ाय आंग्ल भाषा के सरल शब्दों के उपयोग का अनुरोध (या आदेश.....?) किया गया है और वाक्य रचना के कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं - जैसे जल संरक्षण के बजाय वाटर हार्वेस्टिंग, खुदरा प्रबन्धन के बजाय रिटेल मेनेजमेंट....। और तो और विद्यार्थी या छात्र के बजाय स्टूडेंट लिखा जाए। क्या यह हमारी भाषा के शब्दों को इंगलिश के शब्दों से बदल कर उन शब्दों की हत्या नहीं कर देगा? तत्सम में इस बार इसी सन्दर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार, चित्रकार व चिंतक प्रभु जोशी का एक गंभीर टिप्पणी
भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंध नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा-परिपत्र जारी किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी। दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को 'अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी' बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही काम करते चले आ रहे हैं।
ऐसे में 'अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष' के अघोषित एजेण्डे को लागू करने वाले दलालों के लिए तो इस परिपत्र से 'जश्न-ए-कामयाबी'( Vijay Samoroh) का ठीक ऐसा ही समां बंध गया होगा, जब अमेरिका का भारत से परमाणु-संधि का सौदा सुलट गया था। दरअस्ल, देखने में बहुत सदाशयी-से जान पड़ने वाले इस संक्षिप्त से परिपत्र के निहितार्थ नितान्त दूसरे हैं, जिसके परिणाम लगे-हाथ सरकारी दफ्तरों में दिखने लगेंगे। बहरहाल यह किसी सरकारी कारिन्दे का रोजमर्रा निकलने वाला 'कागद' नहीं, भाषा सम्बन्धी एक बड़े 'गुप्त-एजेण्डे' को पूरा करने का प्रतिज्ञा-पत्र है।
दरअस्ल, चीन की भाषा 'मंदारिन' के बाद दुनिया की 'सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा-हिन्दी' से डरी हुई, अपना 'अखण्ड उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी' ने, 'जोशुआ फिशमेन' की बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए, 'उदारीकरण' के शुरू किये जाने के बस कुछ ही समय पहले एक 'सिद्धान्तिकी' तैयार की थी, जो ढाई-दशक से 'गुप्त' थी, लेकिन 'इण्टरनेटी-युग' में वह सामने आ गयी। इसका नाम था, 'रि-लिंग्विफिकेशन'
अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को भाषाएँ न मान कर उनके लिए 'वर्नाकुलर' शब्द कहा करते थे। वे अपने बारे में कहा करते थे, 'वी आर अ नेशन विथ लैंग्विज, व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विद डॉयलेक्ट्स।' फिर हिन्दी को तो तब खड़ी 'बोली' ही कहा जा रहा था। लेकिन, दुर्भाग्यवश एक गुजराती-भाषी मोहनदास करमचंद गांधी ने इसे अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई में 'प्रतिरोध' की भाषा बना दिया और नतीजतन, गुलाम भारत के भीतर एक 'जन-इच्छा' पैदा हो गयी कि इसे हम 'राष्ट्रभाषा' बनाएँ और कह सकें 'वी आर अ नेशन विद लैंग्विज'। लेकिन, 'राष्ट्रभाषा' के बजाय वह केवल 'राजभाषा' बनकर रह गयी। यह भी एक काँटा बन गया।
बहरहाल, चौंसठ वर्षों से सालते रहने वाले काँटे को कहीं अब जाकर निकालने का साहस बटोरा जा सका है। यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है कि अभी तक, पिछले पचास बरस से हिन्दी में जो शब्द चिर-परिचित बने चले आ रहे थे, पिछले कुछ वर्षों में उभरे 'उदारीकरण' के चलते अचानक 'कठिन' 'अबोधगम्य' और टंग-ट्व्स्टिर हो गये। परिपत्र में पता नहीं हिन्दी की किस पत्रिका के उदाहरण से समझाया गया है, कि 'भोजन' के बजाय 'लंच', 'क्षेत्र' के बजाय 'एरिया', 'छात्र' के बजाय 'स्टूडेण्ट', 'परिसर' के बजाय 'कैम्पस', 'नियमित' की जगह 'रेगुलर', 'आवेदन' के बजाय 'अप्लाई', 'महाविद्यालय' के बजाय 'कॉलेज', 'क्षेत्र' की जगह 'एरिया' आदि-आदि हैं, जो 'बोधगम्य' है ?
हिन्दी के 'सरकारी हितैषियों का मुखौटा' लगाने वाले लोग निश्चय ही पढ़े-लिखे लोग हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि भाषाएँ कैसे मरती हैं और उन्हें कैसे मारा जाता हैं। बीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति उन्हें भी बेहतर ढंग से पता होगी। उसको कहते हैं, 'थिअरी ऑव ग्रेजुअल एण्ड स्मूथ-लैंग्विज शिफ्ट'। इसके तहत सबसे पहले 'चरण' में शुरू किया जाता है- 'डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात 'स्थानीय-भाषा' के शब्दों को 'वर्चस्ववादी-भाषा' के शब्दों से विस्थापित करना । बहरहाल, परिपत्र में सरलता के बहाने सुझाया गया रास्ता उसी 'स्मूथडिस्लोकेशन ऑफ वक्युब्लरि ऑफ नेटिव लैंग्विजेज' वाली सिध्दान्तिकी का अनुपालन है। क्योंकि, 'विश्व व्यापार संघ के द्वारा बार-बार भारत सरकार को कहा जाता रहा है कि 'रोल ऑफ गव्हर्मेण्ट आर्गेनाइजेशन्स शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोशन ऑव इंग्लिश'। इसी के अप्रकट निर्देश के चलते हमारे 'ज्ञान-आयोग' ने गहरे चिन्तन-मनन का नाटक कर के कहा कि 'देश के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं, अतः शेष को अंग्रेजी सिखाने के लिए पहली कक्षा से अंग्रेजी विषय की तरह शुरू कर दी जाये।' यह 'एजुकेशन फॉर ऑल' के नाम पर विश्व-बैंक द्वारा डॉलर में दिये गये ऋण का दबाव है, जो अपने निहितार्थ में 'इंग्लिश फॉर ऑल' का ही एजेण्डा है। अतः 'सर्वशिक्षा-अभियान' एक चमकीला राजनैतिक झूठ है। यह नया पैंतरा है, और जो 'भाषा की राजनीति' जानते हैं, वह बतायेंगे कि यह वही 'लिंग्विसिज्म' है, जिसके तहत भाषा को वर्चस्वी बनाया जाता है। दूसरा झूठ होता है, स्थानीय भाषा को 'फ्रेश-लिविंस्टिक लाइफ' देने के नाम पर उसे भीतर से बदल देना। पूरी बीसवीं शताब्दी में उन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को इसी तरह खत्म किया।
एक और दिलचस्प बात यह कि हम 'राजभाषा के अधिकारियों की भर्त्सना' में बहुत आनन्द लेते हैं, जबकि हकीकतन वह सरकारी केन्द्रीय कार्यालयों का सर्वाधिक लतियाया जाता रहने वाला नौकर होता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अधिकारी उसे सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के समय पूछता है और जब 'संसदीय राजभाषा समिति' (जो दशकों से खानापूर्ति के लिए) आती-जाती है, के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए बता रहा है कि हिन्दी के शब्द कठिन, दुरूह और असंप्रेष्य हैं। जबकि, इतने वर्षों में कभी पारिभषिक-शब्दावलि का मानकीकरण' सरकार से खुद ही नहीं किया गया।
कहने की जरूरत नहीं कि यह इस तथाकथित 'भारत-सरकार' (जबकि, इनके अनुसार तो 'गव्हर्मेण्ट ऑफ इण्डिया' ही सरल शब्द है) का इस आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन है, जो देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों को वह अंग्रेजी सिखाने का संकल्प लेती है, लेकिन 'साठ साल में मुश्किल से हिन्दी के हजार-डेढ़ हजार शब्द' नहीं सिखा पायी ? यह सरल-सरल का खेल खेलती हुई किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है ?
यह बहुत नग्न-सचाई है कि देश की मौजूदा सरकार ने 'उदारीकरण के उन्माद' में अपने 'कल्याणकारी राज्य' की गरदन कभी की मरोड़ चुकी है और 'कार्पोरेटी-संस्कृति' के सोच' को अपना अभीष्ट मानने वाले सत्ता के कर्णधारों को केवल 'घटती बढ़ती दर' के अलावा कुछ नहीं दिखता। 'भाषा' और 'भूगोल' दोनों ही उनकी चिंता के दायरे से बाहर हैं। निश्चय ही इस अभियान में हमारा समूचा मीडिया भी शामिल है, जिसने देश के सामने 'यूथ-कल्चर' का राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ा किया और 'अंग्रेजी और पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग' में ही उन्हें अपना भविष्य बताने में जुट गया। यह मीडिया द्वारा अपनाई गई दृष्टि उसी 'रायल-चार्टर' की नीति का कार्यान्वयन है, जो कहता है, 'दे शुड नॉट रिजेक्ट अवर लैंग्विज एण्ड कल्चर इन फेवर आफ 'देअर' ट्रेडिशनल वेल्यूज। देअर स्ट्रांग एडहरेन्स टू मदर टंग हैज टू बी रप्चर्ड।'
कहना न होगा कि 'लैंग्विजेज शुड बी किल्ड विथ काइण्डनेस' की धूर्त रणनीति का प्रतिफल है, यह परिपत्र। बेशक इसे बकौल राहुल देव के 'हिन्दी के ताबूत में आखिरी कील' समझा जाना चाहिए। बहरहाल, हिन्दी को सरल और बोधगम्य बनाये जाने की सद्-इच्छा का मुखौटा धारण करने वाले इस चालाक नीति-निर्देश की चौतरफा आलोचना की जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि इसे वे अविलम्ब वापस लें। निश्चय ही आप-हम-सब इस लांछन के साथ इस संसार से बिदा नहीं होना चाहेंगे कि 'प्रतिरोध' की सर्वाधिक चिंतनशील भाषा का, एक सांस्कृतिक रूप से अपढ़ सत्ता का कोई कारिन्दा हमारे सामने गला घोंटे और हम चुप बने रहे। यह घोषित रूप से जघन्य सांस्कृतिक अपराध है और हिन्दी के हत्यारों की फेहरिस्त में हमारा भी नाम रहेगा।
यह सरकार का हिन्दी को 'आमजन' की भाषा बनाने का पवित्र इरादा नहीं है, बल्कि खास लोगों की भाषा के जबड़े में उसकी गरदन फंसा देने की सुचिंतित युक्ति है। यह शल्यक्रिया के बहाने हत्या की हिकमत है। यह बिना लाठी टूटे साँप की तरह समझी जाने वाली भाषा को मारने की तरकीब है, क्योंकि यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को डंसती है।
क्या कभी कोई कहता है कि अंगेजी का फलाँ शब्द कठिन है ? 'परिचय-पत्र' के बजाय 'आइडियेण्टिटी कार्ड' कठिन शब्द है ? ऐसा कहते हुए वह डरता है। इस सोच से तो 'राष्ट्र' शब्द कठिन है और अंततः तो उनके लिये पूरी हिन्दी ही कठिन हैं । बस अन्त में यही कहना है कि अङ्ग्रेज़ी की दाढ़ में भारतीय-भाषाओं का खून लग चुका है। उसके मुँहह से खून की बू आ रही है और इस 'भाषाखोर' के सामने हमारी भाषाओं के गले में इसी तरह फंदा डाल कर धक्का दिया जा रहा है। यही वह समय है कि हम संभलें और हिंसा की इस कार्रवाई का पुरजोर विरोध करें।
- प्रदीप कान्त
__________________________________________________________भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय की सेवा-निवृत्त होने जा रही एक सचिव सुश्री वीणा उपाध्याय ने जाते-जाते राजभाषा संबंध नीति-निर्देशों के बारे में एक ताजा-परिपत्र जारी किया कि बस अंग्रेजी अखबारों की तो पौ-बारह हो गयी। उनसे उनकी खुशी संभाले नहीं संभल पा रही है। क्योंकि, वे बखूबी जानते हैं कि बाद ऐसे फरमानों के लागू होते ही हिन्दी, अंग्रेजी के पेट में समा जायेगी। दूसरी तरफ हिन्दी के वे समाचार-पत्र, जिन्होंने स्वयं को 'अंग्रेजी-अखबारों के भावी पाठकों की नर्सरी' बनाने का संकल्प ले रखा है, उनकी भी बांछें खिल गयीं और उन्होंने धड़ाधड़ परिपत्र का स्वागत करने वाले सम्पादकीय लिख डाले। वे खुद उदारीकरण के बाद से आमतौर पर और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने के बाद से खासतौर पर अंग्रेजी की भूख बढ़ाने का ही काम करते चले आ रहे हैं।
ऐसे में 'अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष' के अघोषित एजेण्डे को लागू करने वाले दलालों के लिए तो इस परिपत्र से 'जश्न-ए-कामयाबी'( Vijay Samoroh) का ठीक ऐसा ही समां बंध गया होगा, जब अमेरिका का भारत से परमाणु-संधि का सौदा सुलट गया था। दरअस्ल, देखने में बहुत सदाशयी-से जान पड़ने वाले इस संक्षिप्त से परिपत्र के निहितार्थ नितान्त दूसरे हैं, जिसके परिणाम लगे-हाथ सरकारी दफ्तरों में दिखने लगेंगे। बहरहाल यह किसी सरकारी कारिन्दे का रोजमर्रा निकलने वाला 'कागद' नहीं, भाषा सम्बन्धी एक बड़े 'गुप्त-एजेण्डे' को पूरा करने का प्रतिज्ञा-पत्र है।
दरअस्ल, चीन की भाषा 'मंदारिन' के बाद दुनिया की 'सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा-हिन्दी' से डरी हुई, अपना 'अखण्ड उपनिवेश बनाने वाली अंग्रेजी' ने, 'जोशुआ फिशमेन' की बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए, 'उदारीकरण' के शुरू किये जाने के बस कुछ ही समय पहले एक 'सिद्धान्तिकी' तैयार की थी, जो ढाई-दशक से 'गुप्त' थी, लेकिन 'इण्टरनेटी-युग' में वह सामने आ गयी। इसका नाम था, 'रि-लिंग्विफिकेशन'
अंग्रेज शुरू से भारतीय भाषाओं को भाषाएँ न मान कर उनके लिए 'वर्नाकुलर' शब्द कहा करते थे। वे अपने बारे में कहा करते थे, 'वी आर अ नेशन विथ लैंग्विज, व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विद डॉयलेक्ट्स।' फिर हिन्दी को तो तब खड़ी 'बोली' ही कहा जा रहा था। लेकिन, दुर्भाग्यवश एक गुजराती-भाषी मोहनदास करमचंद गांधी ने इसे अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई में 'प्रतिरोध' की भाषा बना दिया और नतीजतन, गुलाम भारत के भीतर एक 'जन-इच्छा' पैदा हो गयी कि इसे हम 'राष्ट्रभाषा' बनाएँ और कह सकें 'वी आर अ नेशन विद लैंग्विज'। लेकिन, 'राष्ट्रभाषा' के बजाय वह केवल 'राजभाषा' बनकर रह गयी। यह भी एक काँटा बन गया।
बहरहाल, चौंसठ वर्षों से सालते रहने वाले काँटे को कहीं अब जाकर निकालने का साहस बटोरा जा सका है। यह एक बहुत ही दिलचस्प बात है कि अभी तक, पिछले पचास बरस से हिन्दी में जो शब्द चिर-परिचित बने चले आ रहे थे, पिछले कुछ वर्षों में उभरे 'उदारीकरण' के चलते अचानक 'कठिन' 'अबोधगम्य' और टंग-ट्व्स्टिर हो गये। परिपत्र में पता नहीं हिन्दी की किस पत्रिका के उदाहरण से समझाया गया है, कि 'भोजन' के बजाय 'लंच', 'क्षेत्र' के बजाय 'एरिया', 'छात्र' के बजाय 'स्टूडेण्ट', 'परिसर' के बजाय 'कैम्पस', 'नियमित' की जगह 'रेगुलर', 'आवेदन' के बजाय 'अप्लाई', 'महाविद्यालय' के बजाय 'कॉलेज', 'क्षेत्र' की जगह 'एरिया' आदि-आदि हैं, जो 'बोधगम्य' है ?
हिन्दी के 'सरकारी हितैषियों का मुखौटा' लगाने वाले लोग निश्चय ही पढ़े-लिखे लोग हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि भाषाएँ कैसे मरती हैं और उन्हें कैसे मारा जाता हैं। बीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं का खात्मा करके उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने की रणनीति उन्हें भी बेहतर ढंग से पता होगी। उसको कहते हैं, 'थिअरी ऑव ग्रेजुअल एण्ड स्मूथ-लैंग्विज शिफ्ट'। इसके तहत सबसे पहले 'चरण' में शुरू किया जाता है- 'डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि'। अर्थात 'स्थानीय-भाषा' के शब्दों को 'वर्चस्ववादी-भाषा' के शब्दों से विस्थापित करना । बहरहाल, परिपत्र में सरलता के बहाने सुझाया गया रास्ता उसी 'स्मूथडिस्लोकेशन ऑफ वक्युब्लरि ऑफ नेटिव लैंग्विजेज' वाली सिध्दान्तिकी का अनुपालन है। क्योंकि, 'विश्व व्यापार संघ के द्वारा बार-बार भारत सरकार को कहा जाता रहा है कि 'रोल ऑफ गव्हर्मेण्ट आर्गेनाइजेशन्स शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोशन ऑव इंग्लिश'। इसी के अप्रकट निर्देश के चलते हमारे 'ज्ञान-आयोग' ने गहरे चिन्तन-मनन का नाटक कर के कहा कि 'देश के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं, अतः शेष को अंग्रेजी सिखाने के लिए पहली कक्षा से अंग्रेजी विषय की तरह शुरू कर दी जाये।' यह 'एजुकेशन फॉर ऑल' के नाम पर विश्व-बैंक द्वारा डॉलर में दिये गये ऋण का दबाव है, जो अपने निहितार्थ में 'इंग्लिश फॉर ऑल' का ही एजेण्डा है। अतः 'सर्वशिक्षा-अभियान' एक चमकीला राजनैतिक झूठ है। यह नया पैंतरा है, और जो 'भाषा की राजनीति' जानते हैं, वह बतायेंगे कि यह वही 'लिंग्विसिज्म' है, जिसके तहत भाषा को वर्चस्वी बनाया जाता है। दूसरा झूठ होता है, स्थानीय भाषा को 'फ्रेश-लिविंस्टिक लाइफ' देने के नाम पर उसे भीतर से बदल देना। पूरी बीसवीं शताब्दी में उन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को इसी तरह खत्म किया।
एक और दिलचस्प बात यह कि हम 'राजभाषा के अधिकारियों की भर्त्सना' में बहुत आनन्द लेते हैं, जबकि हकीकतन वह सरकारी केन्द्रीय कार्यालयों का सर्वाधिक लतियाया जाता रहने वाला नौकर होता है। कार्यालय प्रमुख की कुर्सी पर बैठा अधिकारी उसे सिर्फ हिन्दी पखवाड़े के समय पूछता है और जब 'संसदीय राजभाषा समिति' (जो दशकों से खानापूर्ति के लिए) आती-जाती है, के सामने बलि का बकरा बना दिया जाता है। यह परिपत्र भी उन्हीं के सिर पर ठीकरा फोड़ते हुए बता रहा है कि हिन्दी के शब्द कठिन, दुरूह और असंप्रेष्य हैं। जबकि, इतने वर्षों में कभी पारिभषिक-शब्दावलि का मानकीकरण' सरकार से खुद ही नहीं किया गया।
कहने की जरूरत नहीं कि यह इस तथाकथित 'भारत-सरकार' (जबकि, इनके अनुसार तो 'गव्हर्मेण्ट ऑफ इण्डिया' ही सरल शब्द है) का इस आधी-शताब्दी का सबसे बड़ा दोगलापन है, जो देश के एक अरब बीस करोड़ लोगों को वह अंग्रेजी सिखाने का संकल्प लेती है, लेकिन 'साठ साल में मुश्किल से हिन्दी के हजार-डेढ़ हजार शब्द' नहीं सिखा पायी ? यह सरल-सरल का खेल खेलती हुई किसे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है ?
यह बहुत नग्न-सचाई है कि देश की मौजूदा सरकार ने 'उदारीकरण के उन्माद' में अपने 'कल्याणकारी राज्य' की गरदन कभी की मरोड़ चुकी है और 'कार्पोरेटी-संस्कृति' के सोच' को अपना अभीष्ट मानने वाले सत्ता के कर्णधारों को केवल 'घटती बढ़ती दर' के अलावा कुछ नहीं दिखता। 'भाषा' और 'भूगोल' दोनों ही उनकी चिंता के दायरे से बाहर हैं। निश्चय ही इस अभियान में हमारा समूचा मीडिया भी शामिल है, जिसने देश के सामने 'यूथ-कल्चर' का राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ा किया और 'अंग्रेजी और पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग' में ही उन्हें अपना भविष्य बताने में जुट गया। यह मीडिया द्वारा अपनाई गई दृष्टि उसी 'रायल-चार्टर' की नीति का कार्यान्वयन है, जो कहता है, 'दे शुड नॉट रिजेक्ट अवर लैंग्विज एण्ड कल्चर इन फेवर आफ 'देअर' ट्रेडिशनल वेल्यूज। देअर स्ट्रांग एडहरेन्स टू मदर टंग हैज टू बी रप्चर्ड।'
कहना न होगा कि 'लैंग्विजेज शुड बी किल्ड विथ काइण्डनेस' की धूर्त रणनीति का प्रतिफल है, यह परिपत्र। बेशक इसे बकौल राहुल देव के 'हिन्दी के ताबूत में आखिरी कील' समझा जाना चाहिए। बहरहाल, हिन्दी को सरल और बोधगम्य बनाये जाने की सद्-इच्छा का मुखौटा धारण करने वाले इस चालाक नीति-निर्देश की चौतरफा आलोचना की जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि इसे वे अविलम्ब वापस लें। निश्चय ही आप-हम-सब इस लांछन के साथ इस संसार से बिदा नहीं होना चाहेंगे कि 'प्रतिरोध' की सर्वाधिक चिंतनशील भाषा का, एक सांस्कृतिक रूप से अपढ़ सत्ता का कोई कारिन्दा हमारे सामने गला घोंटे और हम चुप बने रहे। यह घोषित रूप से जघन्य सांस्कृतिक अपराध है और हिन्दी के हत्यारों की फेहरिस्त में हमारा भी नाम रहेगा।
यह सरकार का हिन्दी को 'आमजन' की भाषा बनाने का पवित्र इरादा नहीं है, बल्कि खास लोगों की भाषा के जबड़े में उसकी गरदन फंसा देने की सुचिंतित युक्ति है। यह शल्यक्रिया के बहाने हत्या की हिकमत है। यह बिना लाठी टूटे साँप की तरह समझी जाने वाली भाषा को मारने की तरकीब है, क्योंकि यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को डंसती है।
क्या कभी कोई कहता है कि अंगेजी का फलाँ शब्द कठिन है ? 'परिचय-पत्र' के बजाय 'आइडियेण्टिटी कार्ड' कठिन शब्द है ? ऐसा कहते हुए वह डरता है। इस सोच से तो 'राष्ट्र' शब्द कठिन है और अंततः तो उनके लिये पूरी हिन्दी ही कठिन हैं । बस अन्त में यही कहना है कि अङ्ग्रेज़ी की दाढ़ में भारतीय-भाषाओं का खून लग चुका है। उसके मुँहह से खून की बू आ रही है और इस 'भाषाखोर' के सामने हमारी भाषाओं के गले में इसी तरह फंदा डाल कर धक्का दिया जा रहा है। यही वह समय है कि हम संभलें और हिंसा की इस कार्रवाई का पुरजोर विरोध करें।
- प्रभु जोशी
303, गुलमोहर निकेतन, वसंत-विहार, (शांति निकेतन के पास)
इन्दौर-10
इन्दौर-10
6 टिप्पणियां:
बहुत ही उम्दा आलेख बधाई डॉ० प्रभु जोशी जी और भाई प्रदीप जी
बहुत ही उम्दा आलेख बधाई डॉ० प्रभु जोशी जी और भाई प्रदीप जी
आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।
बहुत अच्छा लिखा आपने !
इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई !
मेरे ब्लॉग पर आये
manojbijnori12 .blogspot .com
Ekadh koyi shabd prachalan ke karan upyog me liya jaye to theek hai,lekin 'vidyarthi' jaisa shabd to hindi me rahna chahiye.
सर्वप्रथम प्रभु जी का हार्दिक आभार की उन्होंने नितांत सहज भाषा में हिंदी के विस्थापन स्वरुप हो रही सरकारी खेमे की कलई बड़ी मुखरता के साथ खोल दी।
कैसी विडम्बना है .....हम हिन्दीभाषी होकर भी हिंदी की चर्चा पर दिवस तय करने लगे हैं , हिंदी पखवाड़ा मनाने लगे हैं | हिंदी , हमारी मातृभाषा...( जिसके कारन ही राज भाषा विभाग बनाये गए और वही पदासीन अधिकारी हिंदी का समूल विस्थापन करने में संलिप्त हैं )
परन्तु आज के सापेक्ष में मात्र एक भाषा बन कर रह गई है | और मजे की बात ये की इसका पूर्ण श्रेय किसी बाहरी व्यक्ति को नहीं हम घर के विभीषणों को ही जाता है |
एक वक़्त था जब हिंदी आमो-खास की भाषा हुआ करती थी, पर आज वो खास लोगो के लिए महज़ एक आम भाषा बन कर रह गई है...
.अब प्रश्न ये उठता है की ऐसा हुआ क्यूँ ? किसी और भाषा का कसूर तो कतई नहीं है ये....क्यूँ की भाषा स्वयं कभी अपना वर्चस्व नहीं बयां करती वो तो
अभिव्यक्ति को संप्रेषित करने का माध्यम मात्र है, और भावों को एक से दूसरे तक पहूँचा कर तृप्त हो जाती है...ये हम ही है जो भाषा को एक सम्प्रेषण का
माध्यम ना मान कर अपने अहम् को तुष्ट करने का माध्यम मानते हैं |
आज का युवा हिंदी बोलने, पढने , यहाँ तक की हिंदी में सोचने में भी सकुचाता है ,किसी विदेशी भाषा को जानना उसमे सोचना और उसे बोलचाल की भाषा
में इस्तेमाल करना उसके लिए फख्र का विषय है | अंग्रेजी को अहम् स्थान देने के पीछे की मूल वजह थी उच्चा शिक्षा में पठन सामग्री की उपलब्धता |
परन्तु मूल वजह के साथ हमने उसे अपनी आवश्यकता बनाने ,प्राथमिकता देने के साथ उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया | यहाँ तक की आज के परिपेक्ष में अंग्रेजी ना आना मानो व्यक्ति इंसान ही नहीं है |
किसी और से क्या शिकायत की जाये जब हमारे संविधान ही में किसी भी अनुच्छेद में हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा तक नहीं दिया गया |
हिंदी की जंग आज केवल विदेशी भाषाओँ से ही नहीं वरन क्षेत्रीय भाषाओँ से भी है | संपूर्ण भारत ही में हिंदी सर्वमान्य नहीं...
व्यक्ति विशेष अपनी क्षेत्रीय बोली को ही तवज्जो देना पसंद करता है | अपनी भाषा को मान देना भी शायद हमें अब बाहरी देशों से सीखना होगा, चाइना में किसी
भी तरह का अध्ययन करने के लिए बाहर से आये प्रत्येक व्यक्ति को चाइनीज़ सीखनी अनिवार्य है | सभी प्रकार की पठन सामग्री वहां चाइनीज़ भाषा में सहज ही
उपलब्ध है | हम क्यूँ नहीं अपनी भाषा को उसका स्थान देने हेतु प्रयास करते ? क्या हम उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जब की हिंदी लुप्तप्राय भाषाओँ में सम्मिलित होगी ?
हिंदी की असली तस्वीर कहीं और नहीं हमारे मन-मस्तिष्क में है, केवल सहर्ष उसे अपनाना शेष है | हिंदी की ओर एक कदम, थोडा सा प्रयास, थोडा सा सम्मान और हिंदी..
.हमारी मात्रभाषा निसंदेह पुन: सिरमौर होगी इसमें कोई दो राय नहीं....हिंदी भाषा के विस्थापन की इस प्रक्रिया से में चिंतित जरूर हूँ परन्तु यह कहने और मानाने में मुझे कोई गुरेज नहीं की , जब तक हिंदी बोलने वाला एक व्यक्ति भी जीवित है उसका नाश संभव नहीं , और मुझे फख्र है की इसे कई व्यक्ति अभी इस देश में हैं जो हिंदी से मेरी और आपकी ही तरह प्यार करते हैं और किसी कीमत पर भी उसे विस्थापित अथवा लुप्त नहीं होने देंगे।
पूजा भाटिया प्रीत
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