गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

एक नवगीत

ख़्वाब वक्त ने जिनके कुतरे 

हमसे पूछो
तत्सम पर इस बार भी अपना ही एक नवगीत...,

प्रदीप कान्त 
कैसे उबरे 

ख़्वाब वक़्त ने
जिनके कुतरे

बन्द खिड़कियाँ
भीतें बदरंग
चुप्पी में हो जैसे जंग
चित्र: प्रदीप कान्त

बेचेहरा - वीरान गली है
आप इधर से
कैसे गुज़रे

रखे हुए
बाज़ारों में
बिकते हमी उधारों में

हुई नुमाइश या फरमाइश
उनकी मर्ज़ी
अपने मुजरे 

- प्रदीप कान्त 

आभार: वेब मेग्ज़ीन अनुभूति  (http://www.anubhuti hindi.org) 

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