शनिवार, 3 अगस्त 2013

कुछ ग़ज़लें


कहते हैं मार्केटिंग का ज़माना है। और जब प्रमोटर न मिले तो अपनी मार्केटिंग ख़ुद ही कर लें। सच मत समझ लीजियेगा... क्योंकि मार्केटिंग वार्केटिंग हमें आती नहीं... इसलिये बिना किसी भूमिका के तत्सम पर इस बार अपनी ही कुछ ग़ज़लें....

-         प्रदीप कांत

1
भले राह में बदली थी जी
वही  चाँदनी  उजली थी जी

वहीं टोंकते तो अच्छा था
बात  जहाँ  से  बदली थी जी

थोड़ा डर तो लगता ही है
बिटिया घर से निकली थी जी

स्वांग ज़रा सा कमतर निकला
हँसी ज़रा सी नकली थी जी

वहीं मगर भी मिला टहलता
जहाँ नदी में मछली थी  जी

2
 दरिया मैं, ग़र सागर तू
मेंरे ही जल से भर तू
छाया- प्रदीप कांत 
ले डूबेगा वज़्न तुझे
शांत झील मैं, पत्थर तू

भली लगेगी छाँव सदा
बैठेगा ग़र थक कर तू

सीधा सा मैं प्रश्न अगर
क्यूँ उलझा सा उत्तर तू

अपने बारे क्या बोलूं?
खुश होगा बस मिलकर तू

(त्रिसुगंधि – गीत-गज़ल-कविता -
बोधि प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक)

3
 हाथ हमारे जितने आऐ
घर के टूटे हिस्से आऐ

बच्चों को खुश करना था
याद न लेकिन किस्से आऐ

और खुशी क्या थी माँ की
बच्चे घर पर हँसते आऐ

सुन्दर हैं कालीन तो क्या
पैरों में ही बिछते आऐ

(हरिगंधा – नव-छन्द विशेषांक, अप्रेल-मई 2013)

4
 जाने कितनी बार हुआ है
सदा पीठ पर वार हुआ है

पढ़ा  हमारा चेहरा उसने
ज्यूँ कोई अख़बार हुआ है

साज़िश में शामिल था वो ही
जिसका ये आभार हुआ है

डरते क्या हो, छूकर देखो
लोहा कितना धार हुआ है

(सम्बोधन – जुलाई-सितम्बर 2013)

2 टिप्‍पणियां:

विमलेश त्रिपाठी ने कहा…

अच्छी गजलें हैं... बधाई प्रदीप कांत....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

लाजवाब हैं सभी गजलें प्रदीप जी ... बधाई ...